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सुदसणाचरिय
५६५ तीन विडम्बनायेंतक्कविहूणो विजो लक्खणहीणो य पंडिओ लोए । भावविहूणो धम्मो तिण्णि वि गराई विडम्बणया ॥
-तर्क विहीन वैद्य, लक्षणविहीन पंडित और भावविहीन धर्म ये तीन महान् विडम्बनायें समझनी चाहिये।
यहाँ पर सिंहलद्वीप में बुद्धदर्शन के प्रचार का उल्लेख है। घोर शिव महाव्रती श्रीपर्वत से आया था और उत्तरापथ में. जालन्धर जाने के लिये उद्यत था; स्तम्भन आदि विद्याओं में वह निष्णात था । राजा को उसने पुत्रोत्पत्ति का मंत्र दिया।
नौवें उद्देश में मुनि के दर्शन से सुदर्शना के मन में वैराग्य भावना उदित होने का वर्णन है। दसवें उद्देश में नवकारमन्त्र का प्रभाव, श्रेयांसकुमार की कथा, मरुदेवी के गर्भ में ऋषभदेव का अवतरण, ऋषभदेव का चरित्र, भरत को केवलज्ञान की उत्पत्ति, नरसुन्दर राजा की कथा, महाबल राजा का दृष्टांत, जीर्ण वृषभ की कथा आदि उल्लिखित हैं। रात्रिभोजन-त्याग का महात्म्य बताया है । ग्यारहवें उद्देश में भृगुकच्छ के अश्वाववोध तीर्थ का वर्णन है । अश्व को बोध देने के लिये मुनिसुव्रतनाथ भगवान् का वहाँ आगमन होता है और अश्व को जातिस्मरण उत्पन्न होता है। बारहवें उद्देश में सुदर्शना के आदेशानुसार मुनिसुव्रतनाथ भगवान का प्रासाद निर्मित किये जाने का वर्णन है। जिनबिम्ब की प्रतिष्ठाविधि सम्पन्न होती है। नर्मदा के किनारे शकुनिकाविहार नामक जिनालय के पूर्ण होने पर उसकी प्रशस्ति आदि की विधि की जाती है । तेरहवें उद्देश में शीलवती के साथ सुदर्शना द्वारा रत्नावली आदि विविध प्रकार के तपश्चरण करने आदि का वर्णन है। चौदहवें उद्देश में शत्रुजय तीर्थ पर महावीर के आगमन और उनके धर्मोपदेश का वर्णन है । पन्द्रहवें उद्देश में महासेन राजा के दीक्षा ग्रहण का उल्लेख है। सोलहवें उद्देश में धनपाल संघ को साथ लेकर रैवतगिरि की यात्रा करता है। यहाँ उज्जयन्त पर्वत पर नेमिनाथ के जिनभवन का वर्णन