________________
५५८ प्राकृत साहित्य का इतिहास
सुपासनाहचरिय ( सुपार्श्वनाथचरित ) सुपार्श्वनाथचरित प्राकृत पद्य की रचना है जिसमें सातवें तीर्थकर सुपार्श्वनाथ का चरित लिखा गया है । सुपार्श्वनाथ का चरित तो यहाँ संक्षेप में ही समाप्त हो जाता है, अधिकांश भाग में उनके उपदेश की ही प्रधानता है। श्रावकों के बारह ब्रतों के अतिचारसंबंधी यहाँ अनेक लौकिक अभिनव कथायें दी हुई हैं । इन कथाओं में कहीं बुद्धि-माहात्म्य, कहीं कला-कौशल आदि की मुख्यता का सरल और प्रभावोत्पादक शैली में दिग्दर्शन कराते हुए लौकिक आचार-व्यवहार, सामाजिक रीति-रिवाज, राजकीय परिस्थिति और नैतिक जीवन आदि का चित्रण किया गया है। सुपार्श्वनाथचरित के कर्ता लक्ष्मणगणि श्रीचन्द्रसूरि के गुरुभाई और हेमचन्द्रसूरि के शिष्य थे। उन्होंने विक्रम संवत् ११६६ (ईसवी सन् ११४२) में राजा कुमारपाल के राज्याभिषेक के वर्ष में इस ग्रंथ की रचना की। लेखक ने आरम्भ में हरिभद्रसूरि आदि आचार्यों का बड़े आदरपूर्वक उल्लेख किया है। बीच-बीच में संस्कृत और अपभ्रंश का उपयोग किया गया है; अनेक सुभाषित इस रचना में संग्रहीत हैं।
पूर्वभव प्रस्ताव में सुपार्श्वनाथ के पूर्वभवों का उल्लेख है। कुलों में श्रावक का कुल, प्रवचनों में निर्ग्रन्थ प्रवचन, दानों में अभयदान और मरणों में समाधिमरण को श्रेष्ठ बताया है । धर्मपालन के संबंध में कहा है
जाव न जरकडपूयणि सव्वंगयं गसइ, जाव न रोयभुयंगु उग्गु निदउ डसइ । ताव धम्मि मणु दिजउ किजउ अप्पहिउ,
अज कि कल्लि पयाणउ जिउ निच्चप्पहिउ । -जब तक जरारूपी पूतना समस्त अंग को न डस ले, उग्र और निर्दय रोगरूपी सर्प न काट ले, उससे पहले ही धर्म में चित्त देकर आत्महित करो। हे जीव, आज या कल निश्चय ही प्रयाण करना है।