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महावीरचरिय
५५५ मन्त्र के बल से भोजन और शय्या आदि तैयार करके गोभद्र को आश्चर्यचकित कर दिया । (इस प्रसंग पर सुंदर रमणियों और जोगिनियों से शोभित जालन्धर नगर का वर्णन किया गया है।) यहाँ चन्द्रलेखा और चन्द्रकान्ता नाम की दो जोगिनी बहनें रहा करती थीं । कुछ समय पश्चात् परदेशी मठों में (विदेसियमठेसु-विदेशी लोगों के ठहरने के मठ) रात्रि व्यतीत कर दोनों वाराणसी पहुँच गये । वहाँ पहुँच कर उन्होंने स्कन्द, मुकुंद, रुद्र आदि देवताओं की पूजा की। दोनों गङ्गा के तट पर आये । सिद्धपुरुष ने दिव्यरक्षा-वलय को गोभद्र को सौंप कर स्नान करने के लिये गङ्गा में प्रवेश किया, और वह प्राणायाम करने लगा । कुछ देर हो जाने पर जब सिद्धपुरुष जल से बाहर नहीं निकला तो गोभद्र को बड़ी चिन्ता हुई। वह समझ नहीं सका कि उसका साथी कहीं लहरों में छिपा रह गया है, या उसे मगर-मच्छ निगल गये हैं, या फिर वह कहीं दलदल में फँस गया है । गोभद्र ने गोताखोरों से यह बात कही। उन्होंने गङ्गा में गोते लगाकर, अपनी भुजाओं को चारों ओर फैलाकर सिद्धपुरुष की खोज की, लेकिन उसका कहीं पता न चला। अपने साथी को गङ्गा में से वापिस न आता देखकर गोभद्र गङ्गा से प्रार्थना करता हुआ विलाप करने लगा। वहीं पास में कोई नास्तिकवादी बैठा हुआ था। उसने गोभद्र को समझाते हुए कहा कि क्या इस तरह विलाप करने से गङ्गा मैया तुझे तेरे साथी को वापिस दे देगी ? उसने कहा कि इस गङ्गा में स्नान करने वाले देश-देश के कोढ़ आदि रोगों से पीड़ित नर-नारियों के स्पर्श का अपवित्र जल प्रवाहित होता है, ऐसी हालत में अनेक मृतक शरीर तथा हड्डी आदि का भक्षण करनेवाली किसी महाराक्षसी की भाँति यह गङ्गा मनोरथ की सिद्धि कैसे कर सकती है ? तथा यदि गङ्गा में स्नान करने से पुण्य मिलता हो तो फिर मत्स्य, कच्छप आदि जीव-जन्तु सबसे अधिक पुण्य के भागी होने चाहिये । गोभद्र ब्राह्मण एकाध-दिन बनारस रह कर