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कुमारपालप्रतिबोध
४७१ प्रकार कभी इन्द्रियों को, कभी कर्मों को और कभी कामवासना को दुःख का कारण बताया गया | अन्त में आत्मा ने प्रशम का उपदेश देते हुए जीवदया और व्रतपालन द्वारा मनुष्य जीवन को साथक बनाने का आदेश दिया | अपभ्रंश पद्यों में रड्डा, पद्धडिया, और पत्ता छन्दों का ही प्रधानता से प्रयोग हुआ है।
इसके बाद विक्रमादित्य और खपुटाचार्य की कथायें हैं। स्थूलभद्रकथा में ब्रह्मचर्य व्रत का माहात्म्य बताया है। पाटलिपुत्र नगर में नवम नन्द नामका राजा राज्य करता था। शकटार उसका मंत्री था। उसके स्थूलभद्र और श्रियक नामके दो पुत्र थे। एक बार वसंत ऋतु के दिनों में स्थूलभद्र कोशा नामक गणिका के प्रासाद में गया और उसके सौन्दर्य पर मुग्ध होकर वहीं रहने लगा। उसी नगर में वररुचि नामका एक विद्वान् ब्राह्मण रहता था। उसकी चालाकी से जब शकटार को प्राणदंड दे दिया गया तो राजा को चिन्ता हुई कि मंत्री के पद पर किसे नियुक्त किया जाये | स्थूलभद्र का आचरण ठीक न था, इसलिये उसके छोटे भाई श्रियक को ही मंत्री बनाया गया । स्थूलभद्र ने सांसारिक भोग-विलास का त्याग कर जैन दीक्षा ग्रहण कर ली और वे कठोर तपस्या में लीन हो गये। एक बार उनके गुरु ने अपने शिष्यों को चातुर्मास के समय किसी कठिन व्रत को स्वीकार करने का आदेश दिया। एक शिष्य ने कहा कि वह चार महीने तक सिंह की गुफा में रहेगा, दूसरे ने दृष्टिविष सर्प के बिल के पास, और तीसरे ने कुंए के अरहट के पास बैठकर ध्यान में लीन होने की प्रतिज्ञा की । लेकिन स्थूलभद्र ने प्रतिज्ञा की कि वह ब्रह्मचर्य व्रत का भंग किये बिना चार महीने तक कोशा के घर में रहेंगे। अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार मुनि स्थूलभद्र चातुर्मास में कोशा के घर आये। कोशा ने समझा कि स्थूलभद्र कठोर तप से घबरा कर आये हैं, लेकिन कोशा का सौन्दर्य और उसके हावभाव मुनि स्थूलभद्र को अपने व्रत से विचलित न कर सके।