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पैशाची लेकिन हस्तलिखित प्रतियों में इन नियमों का अक्षरशः पालन देखने में नहीं आता । कतिपय आधुनिक सम्पादक विद्वानों ने सत्तसई और कर्पूरमंजरी आदि के संस्करणों में उक्त नियमों का अक्षरशः पालन करने का प्रयत्न किया है, लेकिन इससे लाभ के बदले हानि ही अधिक हुई है।
पैशाची पैशाची एक बहुत प्राचीन प्राकृत बोली है जिसकी गणना पालि, अर्धमागधी और शिलालेखी प्राकृतों के साथ की जाती है। चीनी तुर्किस्तान के खरोष्ट्री शिलालेखों में पैशाची की विशेषतायें देखने में आती हैं।' जार्ज प्रियर्सन के मतानुसार. पैशाची पालि का ही एक रूप है जो भारतीय आर्यभाषाओं के विभिन्न रूपों के साथ मिश्रित हो गई है। वररुचि ने प्राकृतप्रकाश के दसवें परिच्छेद में पैशाची का विवेचन करते हुए शौरसेनी को उसकी अधारभूत भाषा स्वीकार किया है। रुद्रट के काव्यालंकार (२,१२) की टीका में नमिसाधु ने इसे पैशाचिक कहा है । हेमचन्द्र ने प्राकृतव्याकरण (४. ३०३-२४) में पैशाची के नियमों का वर्णन किया है। त्रिविक्रम ने प्राकृतशब्दानुशासन ( ३.२.४३ ) और सिंहराज ने प्राकृतरूपावतार के बीसवें अध्याय में इस भाषा का उल्लेख किया है। मार्कण्डेय ने प्राकृतसर्वस्व (पृष्ठ २) में कांचीदेशीय, पांड्य, पांचाल, गौड, मागध, वाचड, दाक्षिणात्य, शौरसेन, कैकय, शाबर और द्राविड़ नाम के ११ पिशाचज (पिशाच देश) बताये हैं। वैसे मार्कण्डेय ने कैकय, शौरसेन और पांचाल नाम की तीन पैशाची बोलियों का उल्लेख किया है। रामशर्मा तर्कवागीश ने प्राकृतकल्पतरु (३.३) में कैकेय, शौरसेन, पांचाल, गौड,
१. देखिये डाक्टर हीरालाल जैन का : नागपुर युनिवर्सिटी जरनल, दिसम्बर १९४१ में प्रकाशित 'पैशाची ट्रेट्स इन द लैंग्वेज ऑव द खरोष्ट्री इंस्क्रिप्शन्स फ्रॉम चाइनीज़ तुर्कीस्तान' नामक लेख ।