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________________ ४६३ कुमारवालपडिबोह धर्मबंधु समझ कर जिनदेव से सारी बातें कहीं। जिनदेव वीरदास का मित्र था, वह नर्मदासुंदरी को उसके पास ले गया, और इस प्रकार कथा की नायिका को दुखों से छुटकारा मिला | उसने सुइस्तिसूरि के चरणों में बैठकर श्रमणी दीक्षा ग्रहण की । कुमारवालपडिबोह (कुमारपालप्रतिबोध) सोमप्रभसूरि ने वि० सं० १२४१ (ई० स० ११८४ ) में कुमारपालप्रतिबोध, जिसे जिनधर्मप्रतिबोध भी कहा जाता है, की रचना की थी। सोमप्रभ का जन्म प्राग्वाट कुल के वैश्य परिवार में हुआ था। संस्कृत और प्राकृत के ये प्रकांड पंडित थे। आचार्य हेमचन्द्र के उपदेशों से प्रभावित हो गुजरात के चालुक्य राजा कुमारपाल ने जैनधर्म को अंगीकार किया था, यही इस कृति का मुख्य विषय है। राजा कुमारपाल की मृत्यु के ग्यारह वर्प पश्चात् इस ग्रंथ की रचना हुई थी। यह ग्रंथ जैन महाराष्ट्री प्राकृत में लिखा गया है, बीच-बीच में अपभ्रंश और संस्कृत का भी उपयोग किया गया है । इसमें पाँच प्रस्ताव हैं। पाँचवाँ प्रस्ताव अपभ्रंश में है। सब मिलकर इसमें ५४ कहानियाँ हैं, अधिकांश कहानियाँ प्राचीन जैन शास्त्रों से ली गई हैं। पहले प्रस्ताव में मूलदेव की कथा है। अहिंसाव्रत के समर्थन में अमरसिंह, दामन्नक, अभयसिंह और कुंद की कथायें आती हैं । नल-दमयन्ती की कथा सुप्रसिद्ध है। नल की भर्त्सना करते हुए एक जगह कहा है निट ठुरु निक्किवु काउरिसु एकुजि नलु न हु भंति | मुक्क महासई जेण विणि निसिसुत्ती दमयंती ॥ -नल के समान कोई भी निष्ठुर, निर्दय और कापुरुष १. यह ग्रंथ गायकवाड ओरियंटल सीरीज़, बड़ौदा में मुनि जिनविजय द्वारा सन् १९२० में सम्पादित होकर प्रकाशित हुआ है । इसका गुजराती अनुबाद जैन आत्मानंद सभा की ओर से संवत् १९८३ में प्रकाशित किया गया है।
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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