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कथाकोषप्रकरण
४३९ गान्धर्व, नाट्य, अश्वशिक्षा आदि कलाओं के साथ धातुवाद और रसवाद की शिक्षा का भी उल्लेख किया गया है। इन दोनों को अर्थोपार्जन का साधन बताया है।'
१. जिनेश्वरसूरि के कथाकोषप्रकरण के सिवाय और भी कथाकोप प्राकृत में लिखे गये हैं। उत्तराध्ययन की टीका (सन् १०७३ में समाप्त) के कर्ता नेमिचन्द्रसूरि और वृत्तिकार आनदेवसूरि के आख्यानमणिकोश और गुणचन्द्र गणि के कहारयणकोस (सन् ११०१ में समाप्त) का विवेचन आगे चलकर किया गया है। इसके अतिरिक्त प्राकृत और संस्कृत के अनेक कथारनकोशों की रचना हुई
१-धम्मकहाणयकोस प्राकृत कथाओं का कोश है। प्राकृत में ही इस पर वृत्ति है। मूल लेखक और वृत्तिकार का नाम अज्ञात है (जैन ग्रंथावलि, पृ० २६७)।
२-कथानककोश को धम्मकहाणयकोस भी कहा गया है। इसमें १४० गाथायें हैं। इसके कर्ता का नाम विनयचन्द्र है, इनका समय संवत् ११६६ (ईसवी सन् १९०९) है। इस ग्रंथ पर संस्कृत व्याख्या भी है। इसकी हस्तलिखित प्रनि पाटन के भंडार में है।
३-कथावलि प्राकृत-कथाओं का एक विशाल ग्रंथ है जिसे भद्रेश्वर ने लिखा है। भद्रेश्वर का समय ईसवी सन् की ११वीं शताब्दी माना जाता है। इस प्रन्थ में त्रिषष्टिशलाकापुरुषों का जीवनचरित संग्रहीत है। इसके सिवाय कालकाचार्य से लगाकर हरिभद्रसूरि तक के प्रमुख आचार्यों का जीवनचरित यहाँ वर्णित है। इसकी हस्तलिखित प्रति पाटण के भंडार में है।
४-जिनेश्वर ने भी २३९ गाथाओं में कथाकोश की रचना की। इसकी वृत्ति प्राकृत में है। ___ इसके अतिरिक्त शुभशील का कथाकोश ( भद्रेश्वरबाहुबलिवृत्ति ), श्रुतसगर का कथाकोश (व्रतकथाकोश), सोमचन्द्र का कथामहोदधि, उत्तमर्पि का कथारत्नाकरोद्धार, हेमविजयगणि का कथारत्नाकर, राजशेखरमलधारि का कथासंग्रह (अथवा कथाकोश) आदि कितने ही कथाकोश संस्कृत में भी लिखे गये।