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४२२ प्राकृत साहित्य का इतिहास जाकर लगा। इस प्रसंग पर कथाकार ने जलधि की संसार से उपमा देते हुए मुनि के मुख से धर्म का उपदेश दिलाया है। आगे चलकर मज्जन-वापी में क्रीडा का सुन्दर वर्णन है । वर्षा ऋतु का चित्रण देखिये
गज्जति घणा पच्चंति बरहिणो विज्जुला वलवलेइ । रुक्खग्गे य बलाया पहिया य घरेसु वच्चंति ।। जुष्पति णंगलाइं भज्जति पवाओ वियसए कुडओ। वासारत्तो पत्तो गामेसु धराइं छज्जति ॥
-बादल गड़गड़ा रहे हैं, मोर नाच रहे हैं, बिजली चमक रही है, बगुलों की पंक्ति वृक्ष पर बैठी है, पथिक घर लौट रहे हैं, हल जोत दिए गये हैं, पानी की प्याऊ तोड़ दी गई है, कुटज वृक्ष विकसित हो रहे हैं, वर्षाकाल आ जाने पर गाँवों के घर सुन्दर दिखाई दे रहे हैं।
प्रशस्त तिथि, करण, नक्षत्र, लग्न और योग में सितचंदन और वस्त्र धारण करके व्यापारी लोग समुद्र-यात्रा के लिए यानपात्र में सवार होते थे। उस समय पटहों की घोषणा होती, ब्राह्मण पाठ पढ़ते, जय-जयकार शब्द होता, समुद्र-देवता की पूजा की जाती और अनुकूल पवन होने पर जहाज प्रस्थान करता। ग्रीष्म ऋतु के सम्बन्ध में एक उक्ति है
सो णस्थि कोइ जीवो जयम्मि सयलम्मि जो ण गिम्हण । संताविओ जहिच्छं एक्कं चिय रासहं मोत्तुं ॥
-समस्त संसार में ऐसा कौन है जो ग्रीष्म से व्याकुल न होता हो ? एक गधा ही ऐसा है जो अपनी इच्छा से संताप को सहन करता है।
यक्ष के मस्तक पर जिनेन्द्र भगवान् की प्रतिमा होने का उल्लेख है। नर्मदा के दक्षिण तट पर देयाडई नाम की महा अटवी, तथा उज्जयिनी नगरी का वर्णन है। इन्द्रमह, दिवाली, देवकुलयात्रा और बलदेव आदि उत्सवों और पुण्ड्रेक्षुवन का उल्लेख है।