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प्राकृत साहित्य का इतिहास
समराइचकहा समराइच्चकहा' अथवा समरादित्यकथा में उज्जैन के राजा समरादित्य और प्रतिनायक अग्निशर्मा के नौ भवों का वर्णन है | समराइञ्चकहा के कर्ता याकिनीमहत्तरा के पुत्र हरिभद्रसूरि हैं जिनका नाम पादलिप्त और बप्पभट्टि आचार्यों के साथ आदरपूर्वक लिया गया है। सिद्धर्षि और उद्योतनसूरि ने हरिभद्रसूरि के प्रभाव को स्वीकार किया है। हरिभद्रसूरि चित्तौड़ के रहनेवाले थे। संस्कृत और प्राकृत के ये बड़े विद्वान थे; आगमप्रन्थों की टीकायें इन्होंने लिखी है। इनका समय ईसवी सन् की आठवीं शताब्दी है। समराइञ्चकहा को हरिभद्रसूरि ने धर्मकथा नाम से उल्लिखित किया है। अपनी इस कृति के कारण उन्होंने कविरूप में प्रसिद्धि प्राप्त की थी। इस कथा में नायक-नायिकाओं की प्रेम-कथाओं और उनके चरित्रों का वर्णन है जो संसार का त्याग करके जैन दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं। बीच-बीच में अनेक धार्मिक आख्यान गुंफित हैं जिससे कर्म
और पुनर्जन्म के सिद्धान्तों का समर्थन होता है । समराइच्चकहा जैन महाराष्टी प्राकृत में लिखी गई है, यद्यपि अनेक जगह शौरसेनी का प्रभाव भी पाया जाता है। इसका पद्यभाग आर्याछन्द में लिखा गया है, द्विपदी, विपुला आदि मंदों के भी प्रयोग मिलते हैं। भाषा प्रायः सरल और प्रवाहबद्ध है। कहीं पर वर्णन करते समय लंबे समासों और उपमा आदि अलंकारों का भी प्रयोग हुआ है, जिससे लेखक के काव्य-कौशल का पता चलता है। इसके वर्णनों को पढ़ते हुए कितनी बार
१. डा. हर्मन जैकोबी ने भूमिका के साथ इसे एशियाटिक सोसायटी ऑव बंगाल, कलकत्ता से सन् १९२६ में प्रकाशित किया था। उसके बाद पंडित भगवानदास ने संस्कृत छाया के साथ दो भागों में क्रमशः सन् १९३८ और १९४२ में इसे अहमदाबाद से प्रकाशित किया।