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________________ ३८० प्राकृत साहित्य का इतिहास अपनी सखी के हाथ पद्मदेव के पास भिजवाया | फिर अपनी सखी को साथ लेकर मैं अपने प्रिय के घर पहुंची। वहाँ से हम दोनों नाव में बैठकर जमुना नदी के उस पार चले गये और गांधर्व विवाह के अनुसार हमने विवाह कर लिया। कुछ समय बाद वहाँ चोरों का आक्रमण हुआ, उन्होंने हम दोनों को पकड़ लिया। वहाँ अनेक ध्वजाओं से चिह्नित कात्यायनी का एक मंदिर था। वे लोग कात्यायनी को प्रसन्न करने के लिये उसे हमारी बलि देना चाहते थे। मैंने बहुत विलाप किया, जिससे चोरों के सुभट ने दया करके हमें बंधन से मुक्त कर दिया। वहाँ से छूटकर हमलोग खयग (?) आदि नगरों में होते हुए कौशांबी आकर अपने माता, पिता से मिले । हमारी कहानी सुनकर उन्हें बड़ा दुख हुआ। उन्होंने बहुत धूमधाम से हम दोनों का विवाह कर दिया । कुछ समय पश्चात् मैंने दीक्षा ग्रहण की और चंदनवाला की शिष्या बनकर मैं तप और व्रत-उपवास करने लगी। अब मैं उन्हीं के साथ विहार करती हुई इस नगर में आई हूँ।" तरंगवती का जीवनचरित सुनकर सेठानी ने श्राविका के बारह व्रत स्वीकार किये। तरंगवती भिक्षा ग्रहण कर अपने उपाश्रय में लौट गई। तरंगवती ने केवलज्ञान प्राप्त कर सिद्धि पाई, पद्मदेव भी सिद्ध हो गये। यहाँ अत्थसत्थ ( अर्थशास्त्र) की प्राकृत गाथाओं को उद्धृत किया है जिनमें बताया है कि दूती से सब भेद खुल जाता है, और उससे कार्य की सिद्धि नहीं होती तो भणइ अत्थसत्यंमि वणियं सुयणु ! सत्थयारेहिं । दूती परिभवदूती न होइ कजस्स सिद्धिकरी ॥ एतो हु मंतभेओ दूतीओ होज कामनेमुक्का । महिला मुंचरहस्सा रहस्सकाले न संठाइ॥ * आमरणमवेलायां नीणति अवि य घेघति चिंता। - होज मंतभेओ गमणविघाओ अनिव्वाणी ।
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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