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________________ प्राकृत साहित्य का इतिहास अर्धमागधी को अथवा वैयाकरणों ने आर्ष भाषा को मूल भाषा स्वीकार किया है जिससे अन्य भाषाओं और बोलियों का उद्गम हुआ । अर्थमागधी जैन आगमों की भाषा है, संस्कृत नाटकों में इसका प्रयोग नहीं हुआ । यद्यपि ध्वनितत्त्व की अपेक्षा अर्धमागधी.पालि से बाद की भाषा है, फिर भी शब्दावलि, वाक्य-रचना और शैली की दृष्टि से प्राचीनतम जैन सूत्रों की यह भाषा पालि के बहुत निकट है। पालि की भाँति अर्धमागधी भी संस्कृत से काफी प्रभावित है। इस संबंध में हरमन जैकोबी ने जो आचारांग. सूत्र की भूमिका (पृष्ठ ८-१४ ) में पालि और अर्धमागधी की तुलना करते हुए जैन प्राकृत का एक लघु व्याकरण दिया है वह पढ़ने योग्य है । पिशल ने अर्धमागधी के अनेक प्राचीन रूप दिये हैं।' भरत ने नाट्यशास्त्र ( १७.४८ ) में मागधी, आवंती, प्राच्या, शौरसेनी, वाह्नीका और दाक्षिणात्या के साथ अर्धमागधी को सात भाषाओं में गिनाया है। निशीथचूर्णीकार (११, पृष्ठ स्वयं ही मागधी भाषा बोलने लगते हैं। यह भाषा नरक, तियंच, प्रेत, मनुष्य और देवलोक में समझी जाती है। १. खिप्पामेव (क्षिप्रं एव) गोयमा इ (गोयमा इति ), पडुच्च (प्रतीत्य ), अहा (यथा), अण्णमण्णेहिं (अन्यमन्यैः), देवत्ताए (देवत्वाय ), योगसा (योगेन), धम्मुणा (धर्मेण), आइक्खइ (आख्याति), पाउणइ (प्राप्नोति), कुवइ (करोति), कटु (कृत्वा ), मुंजित्तु (भुक्त्वा ), करित्ताणं (कृत्वा), भोचा (भुक्त्वा), आरुसियाणं (आरुष्य) आदि, प्राकृतभाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ ३३ । २. यहाँ कहा है कि अर्धमागधी, नाटकों में नौकरों, राजपूतों और श्रेष्ठियों द्वारा बोली जानी चाहिये, यद्यपि संस्कृत नाटकों में अर्धमागधी नहीं बोली जाती।
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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