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३६२ प्राकृत साहित्य का इतिहास है। हरिभद्र का धूर्ताख्यान तो हास्य, व्यंग्य और विनोद का एकमात्र कथा-ग्रंथ है। हरिभद्रसूरि का उपदेशपद धर्मकथानुयोग की एक दूसरी रचना है। कुशल कथाकार हरिभद्रसूरि ने अपनी इस महत्वपूर्ण रचना को दृष्टांतों, उदाहरणों, रूपकों, विविध मनोरंजक संवादों, प्रतिवादी को परास्त कर देनेवाले मुँहतोड़ उत्तरों, धूतों के आख्यानों, सुभाषितों और उक्तियों द्वारा । सुसजित किया है। कुवलयमाला के रचयिता उद्योतनसूरि (ईसवी सन् ७७६) भी एक उच्चकोटि के समर्थ कलाकार हो 'गये हैं। उन्होंने अपनी रचना में अनेक लोक-प्रचलित देशी भाषाओं का उपयोग किया है। कथासुंदरी को नववधू के समान अलंकारसहित, सुंदर, ललित पदावलि से विभूषित, मृदु और मंजु संलापों से युक्त और सहृदय जनों को आनन्ददायक घोषित कर कथा-साहित्य को उन्होंने लोकप्रिय बनाया है । लेखक की यह अनुपम कृति अनेक हृदयग्राही वर्णनों, काव्य-कथाओं, प्रेमाख्यानों, संवादों, और समस्या-पूर्ति आदि से सजीव हो उठी है। सुदंसणाचरिय के कर्ता देवेन्द्रसूरि ने रात्रिकथा, स्त्रीकथा, भक्तकथा और जनपदकथा नाम की चार विकथाओं का त्याग करके धर्मकथा के श्रवण को हितकारी वताया है। सोमप्रभसूरि ने कुमारपालप्रतिबोध का कुछ अंश धार्मिक कथाबद्ध रूपक काव्य । में प्रस्तुत किया है जिसमें जीव, मन और इन्द्रियों का पारस्परिक वार्तालाप बहुत ही सुंदर बन पड़ा है। इसके अतिरिक्त जिनेश्वरसूरि का कथाकोषप्रकरण, नेमिचन्दसूरि और वृत्तिकार आम्रदेव सूरि का आख्यानमणिकोष, गुणचन्द्रगणि का कथारत्नकोष तथा प्राकृतकथासंग्रह आदि रचनायें कथा-साहित्य की निधि हैं। इसी प्रकार हरिभद्रसूरि का उपदेशपद, धर्मदासगणि का उपदेशमाला, जयसिहसूरि का उपदेशरत्नमाला और मलधारी हेमचन्द्र का उपदेशमालाप्रकरण आदि ग्रंथ उपदेशप्रधान कथाओं के अनुपम संग्रह हैं, जिनमें जैनधर्म की सैकड़ों हजारों धार्मिक और लौकिक कथायें सन्निविष्ट हैं।
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