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प्राकृत साहित्य का इतिहास
पंचसंगह ( पंचसंग्रह) पार्श्वऋषि के शिष्य चन्द्रर्षि महत्तर ने पंचसंग्रह' की रचना की है। इस पर उन्होंने स्वोपज्ञ वृत्ति लिखी है | मलयगिरि की इस पर भी टीका है। इसमें ६६३ गाथायें हैं जो सयग, सत्तरि, कसायपाहुड, छकम्म और कम्मपयडि नाम के पाँच द्वारों में विभक्त हैं। गुणस्थान, मार्गणा, समुद्धात, कर्मप्रकृति, तथा बंधन, संक्रमण आदि का यहाँ विस्तृत वर्णन है।
प्राचीन कर्मग्रन्थ कम्मविवाग, कम्मत्थव, बंधसामित्त, सडसीइ, सयग और सित्तरि ये छह कर्मग्रंथ गिने जाते हैं। इनमें कम्मविवाग के कर्ता गर्गर्षि हैं; कम्मत्थव और बंधसामित्त के कर्ता अज्ञात हैं। जिनवल्लभगणि ने सडसीइ नाम के चौथे कर्मग्रन्थ की रचना की है। सयग नाम के पाँचवें कर्मग्रन्थ के रचयिता आचार्य शिवशर्म हैं, इसका उल्लेख पहले किया जा चुका है। छठे कर्मग्रंथ के कर्ता अज्ञात हैं।
इन कर्मग्रंथों का विषय गहन होने के कारण उन पर भाष्य, चूर्णियाँ और अनेक वृत्तियाँ लिखी गई हैं। उदाहरण के लिये, दूसरे कर्मग्रंथ के ऊपर एक और चौथे कर्मग्रंथ के ऊपर दो भाष्य हैं। इन तीनों भाष्यों के कर्ताओं के नाम अज्ञात हैं।
१. स्वोपज्ञवृत्ति सहित जैन आत्मानंद सभा की ओर से सन् १९२७ में प्रकाशित । मलयगिरि की टीका के साथ हीरालाल हंसराज की ओर से सन् १९१० आदि में चार भागों में प्रकाशित । मूल संस्कृत छाया तथा मूल और मलयगिरि टीका के अनुवाद सहित दो खंडों में सन् १९३५ और सन् १९४१ में प्रकाशित ।
२. ये चार कर्मग्रंथ संस्कृत टीका सहित जैन आत्मानंद सभा की ओर से वि० सं० १९७२ में प्रकाशित हुए हैं। इनकी भूमिका में विद्वान् संपादक चतुरविजय जी महाराज ने कर्मसिद्धान्त का विवेचन करते हुए इस विषय के साहित्य की सूची दी है।