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३३४ प्राकृत साहित्य का इतिहास इसकी भी रचना हुई है। इसमें २८६ गाथाओं में सत् , प्रमाण, क्षेत्र, स्पर्श, काल, अन्तर और भाव की अपेक्षा जीवाजीव का विचार किया गया है। इस पर मलधारि हेमचन्द्रसूरि ने विक्रम संवत् ११६४ (ईसवी सन् ११०७) में ७०० श्लोकप्रमाण बृहद्वृत्ति की रचना की है। शीलांक आचार्य ने भी इस पर वृत्ति लिखी है।
विशेषणवती इसके रचयिता जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण हैं।' इसमें ४०० गाथाओं में वनस्पतिअवगाह, जलावगाह, केवलज्ञान-दर्शन, बीजसजीवत्व आदि विषयों का वर्णन है।
विंशतिविशिका इसके कर्ता याकिनीसूनु हरिभद्रसूरि हैं। इसके प्रत्येक अधिकार में बीस-बीस गाथायें हैं जिनमें लोक, अनादित्व, कुलनीतिलोकधर्म, चरमावर्त, बीज, सद्धर्म, दान, पूजा, श्रावकधर्म, यतिधर्म, आलोचना, प्रायश्चित्त, योग, केवलज्ञान, सिद्धभेद, सिद्धसुख आदि का वर्णन है।
सार्धशतक इसका दूसरा नाम सूक्ष्मार्थसिद्धांतविचारसार है। इसके कर्ता जिनवल्लभसूरि हैं। इस पर ११० गाथाओं का एक अज्ञातकर्तृक भाष्य है; मुनिचन्द्र ने चूर्णी, तथा हरिभद्र, धनेश्वर और चक्रेश्वर ने वृत्तियाँ लिखी हैं।
१. ऋषभदेव केशरीमल संस्था, रतलाम की ओर से सन् १९२७ में प्रकाशित ।
२. वही, प्रोफेसर के० वी० अभ्यंकर ने इसका अंग्रेजी अनुवाद किया है जो मूल और संस्कृत छाया सहित अहमदाबाद से सन् १९३२ में प्रकाशित हुआ है।
३. आस्मानंद जैन सभा, भावनगर की ओर से प्रकाशित ।