________________
विशेषावश्यकभाष्य
३२९ यह छह आवश्यकों में से केवल सामायिक आवश्यक के ऊपर लिखा हुआ भाष्य है जिसके कर्ता जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण (स्वर्गवास वीरनिर्वाण संवत् १०१०= सन् ५४०) हैं । जैन आचार्यों ने इन्हें दुषमाकाल में अंधकार में निमग्न जिनप्रवचन को प्रकाशित करने के लिये प्रदीप-समान बताया है। इनकी यह विशेषता है कि तार्किक होते हुए भी इन्होंने आगमिक परम्परा को सुरक्षित रक्खा है। इसलिये इन्हें आगमवादी अथवा सिद्धांतवादी कहा गया है। इस भाष्य पर इनकी स्वोपज्ञ टीका है, जिसे कोट्टार्यवादी गणि ने समाप्त किया है।' जिनभद्रगणि ने जीतकल्पसूत्र, जीतकल्पसूत्रभाष्य, बृहत्संग्रहणी, बृहरक्षेत्रसमास, विशेषणवती, और अंगुलपदचूर्णी आदि महत्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना की है। विशेषावश्यकभाष्य को यदि जैनज्ञानमहोदधि कहा जाये तो कोई अत्युक्ति न होगी। जैनधर्मसम्बन्धी ऐसी कोई भी विषय नहीं जो इसमें न आ गया हो । इस भाष्य में ३६०३ गाथायें हैं । सर्वप्रथम मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान का विस्तार के साथ प्रतिपादन किया है। तत्पश्चात् निक्षेप, नय और प्रमाण का विशद् विवेचन है। गणधरवाद का यहाँ सविशेष वर्णन है। फिर आठ निहवों का अधिकार है, उसके बाद पंच परमेष्ठियों की व्याख्या की गई है। सिद्धनमस्कारव्याख्या में समुद्धात, शैलेशी, अनन्त सुख, अवगाहना आदि का निरूपण है । अन्त में नय का विवेचन किया गया है।
ग्रंथमाला, बनारस से वीर संवत् २४३७ में प्रकाशित हुआ है । इसका गुजराती अनुवाद आगमोदय समिति की ओर से छपा है। कोट्याचार्य की टीका सहित यह ग्रंथ ऋषभदेवजीकेशरीमल संस्था, रतलाम की ओर से ईसवी सन् १९३६ में प्रकाशित हुआ है।
१. इस टीका को मुनि पुण्यविजय जी शीघ्र ही प्रकाशित कर