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३१८ प्राकृत साहित्य का इतिहास करते हुए दुख के भागी होते हैं। मन रूपी वृक्ष को निर्मूल करने के लिए उसकी राग-द्वेष रूपी शाखाओं को काट उन्हें निष्फल बनाकर मोहरूपी जल से वृक्ष को न सींचने का उपदेश दिया है। जैसे जल का संयोग पाकर लवण उसमें विलीन हो जाता है वैसे ही चित्त ध्यान में विलीन हो जाता है। इससे शुभ और अशुभ कर्मों के दग्ध हो जाने से आत्मारूपी अग्नि प्रकट होती है । परीषहों के सम्बन्ध में कहा है
जहं जहं पीडा जायइ भुक्खाइपरीसहेहिं देहस्स | तहं तहं गलंति प्रणं चिरभवबद्धाइं कम्माई॥ -जैसे जैसे बुभुक्षा आदि परीषह सहन करने से इस देह को पीड़ा होती है, वैसे-वैसे चिरकाल से बँधे हुए कर्मों का नाश होता है।
तत्वसार धर्मप्रवर्तन और भव्यजनों के बोध के लिए इस ग्रंथ की रचना की गई है। सकलकीर्ति की इस पर टीका है। इसमें ७४ गाथायें हैं जिनमें तत्व के सार का प्ररूपण है। ध्यान से मोक्ष की सिद्धि बताई है
चलणरहिओ मणुस्सो जह बंधइ मेरुसिहरमारुहिउं। . तह झाणेण विहीणो इच्छइ कम्मक्खयं साहू ॥
-जैसे बिना पाँव का कोई मनुष्य मेरु के शिखर पर चढ़ना चाहे, उसी प्रकार ध्यानविहीन साधु कर्मों के क्षय की इच्छा करता है।
१. मिलाइये-कण्हपा के दोहाकोष (३२) के साथजिम लोण विलिजइ पाणिएहि तिमि परिणि लह चित्त ।
समरस जाई तक्खणे जइ पुणु ते समणित्त ॥ २. माणिकचन्द दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला से वि० सं० १९७७ में प्रकाशित तत्वानुशासनादिसंग्रह में संगृहीत ।