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. तिलोयपण्णत्ति
२९३ विभक्ति आदि २३ अनुयोगद्वारों का अवलम्बन लेकर किया है। इसी प्रकार उत्तरप्रकृतिअनुभागविभक्ति में सर्वानुभागविभक्ति, नोसवानुभागविभक्ति, उत्कृष्टअनुभागविभक्ति, अनुत्कृष्टअनुभागविभक्ति आदि अनुयोगद्वारों का अवलम्बन लेकर विषय का विवेचन है।
तिलोयपण्णत्ति (त्रिलोकप्रज्ञप्ति) कषायप्राभृत पर चूर्णीसूत्रों के रचयिता यतिवृषभ आचार्य की दूसरी रचना त्रिलोकप्रज्ञप्ति' है। करणानुयोग का यह प्राचीन ग्रंथ प्राकृतभाषा में लिखा गया है जो आठ हजार श्लोकप्रमाण है। इसमें त्रिलोकसंबंधी विषय का वर्णन है। यह ग्रंथ दिगंबर साहित्य के प्राचीनतम श्रुतांग से संबंध रखता है। धवलाटीका में इस ग्रंथ के अनेक उद्धरणों का उल्लेख है। ग्रंथकर्ता को त्रिलोकप्रज्ञप्ति के विषय का ज्ञान आचार्यपरंपरा से प्राप्त हुआ है । ग्रंथ में अग्रायणी, परिकर्म, लोकविभाग और लोकविनिश्चय नामक प्राचीन ग्रंथों और उनके पाठांतरों का उल्लेख मिलता है। अनेक मतभेदों का निर्देश यहाँ किया गया है। इस ग्रंथ का विषय श्वेतांबर आगमों के अन्तर्गत सूर्यअज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति तथा दिगम्बरीय धवला. जयधबला टीका और त्रिलोकसार आदि प्राकृत के ग्रंथों से मिलता-जुलता है। लोकविभाग, मूलाचार, भगवतीआराधना, पंचास्तिकाय, प्रवचनसार और समयसार आदि प्राचीन ग्रंथों और तिलोयपण्णत्ति की बहुत सी गाथायें समान हैं।
१. डॉक्टर ए. एन. उपाध्ये और डॉक्टर हीरालाल जैन द्वारा संपादित; जीवराज जैन ग्रन्थमाला शोलापुर में सन् १९४३ और १९५१ में दो भागों में प्रकाशित ।
२. देखिये तिलोयपण्णत्ति, भाग २ की भूमिका, पृ० ३८-६२ । इस प्रकार की गाथाओं को परंपरागत ही मानना चाहिये।
३. तिलोयपण्णत्ति की प्रस्तावना (पृष्ठ ७४ आदि) में डॉक्टर