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महाबन्ध
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महाबन्ध महाबन्ध को महाधवल के नाम से भी कहा गया है। पहले कहा जा चुका है, यह ग्रन्थ षट्खण्डागम का ही छठा खण्ड है, जिसकी रचना आचार्य भूतबलि ने की है। इसका मंगलाचरण भी पृथक् न होकर षट्खण्डागम के चतुर्थ खण्ड वेदना आदि में उपलब्ध मंगलाचरण से ही सम्बद्ध है। फिर भी यह महान् कृति स्वतन्त्र कृति के रूप में उपलब्ध होती है। इसका एक तो कारण यह है कि यह पूर्वोक्त पाँच खण्डों से बहुत विशाल है, दूसरे इस ग्रंथराज पर टीका लिखने की आवश्यकता नहीं समझी गई, इसलिये धवलाकार आचार्य वीरसेन ने इस पर टीका नहीं लिखी । इसकी रचना ४० हजार श्लोकप्रमाण है। __ महाबन्ध सात भागों में है। प्रथम पुस्तक में प्रकृतिबन्ध नाम के प्रथम अधिकार का सर्वबन्ध, नोसर्वबंध, उत्कृष्टबंध, अनुत्कृष्टबंध आदि अधिकारों में प्ररूपण किया गया है। दूसरी पुस्तक में स्थितिबंध अधिकार का प्ररूपण है । इसके दो मुख्य अधिकार हैं-मूलप्रकृतिस्थितिबंध और उत्तरप्रकृतिस्थितिबंध । मूलप्रकृतिस्थितिबंध के मुख्य अधिकार चार हैं-स्थितिबंधस्थानप्ररूपणा, निषेकप्ररूपणा, आबाधकांडकारूपणा और अल्पबहुत्व | आगे चलकर अद्धाच्छेद, सर्वबंध, नोसर्वबंध, उत्कृष्टबंध, अनुत्कृष्टबंध आदि अधिकारों के द्वारा मूलप्रकृतिस्थितिबंध का विचार किया गया है। उत्तरप्रकृतिस्थितिबंध का विचार भी इसी प्रक्रिया से किया है। तीसरी पुस्तक में स्थितिबंध के शेष भाग का प्ररूपण चालू है । बन्धसन्निकर्ष, नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय, भागाभागप्ररूपणा, परिमाणप्ररूपणा, क्षेत्रप्ररूपणा, स्पर्शनप्ररूपणा, कालप्ररूपणा, अन्तरप्ररूपणा, भावप्ररूपणा और अल्पबहुत्व नामक अधिकारों के द्वारा विषय का विवेचन किया गया है । चौथी पुस्तक में अनुभागबंध अधिकार का प्ररूपण
१. भारतीय ज्ञानपीठ, काशी से सन् १९४७-१९५८ में प्रकाशित । १९ प्रा०सा०