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________________ २७६ प्राकृत साहित्य का इतिहास उल्लेख करते हुए दक्षिण-प्रतिपत्ति को ऋजु और आचार्यपरम्परागत, तथा उत्तर-प्रतिपत्ति को अनृजु और आचार्यपरम्परा के बाह्य बताया है। सूत्र-पुस्तकों के भिन्न-भिन्न पाठों और मतभेदों का उल्लेख करते हुए यथाशक्ति उनका समाधान किया गया है। नागहस्ति के उपदेश को यहाँ पवाइज्जंत अर्थात् आचार्य परम्परागत तथा आर्यमंक्षु के उपदेश को अपवाइज्जमाण कहा है। इससे इन दोनों महान् आचार्यों के मतभेद का सूचन होता है। षट्खंडागम के छः खंड षटखंडागम के छः खंड हैं। पहले खंड का नाम जीवट्ठाण है। इसमें सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व ये आठ अनुयोगद्वार और नौ चूलिकायें हैं । इस खंड का परिमाण १८ हजार है। पूर्वोक्त आठ अनुयोगद्वार और नौ चूलिकाओं में गुणस्थानों और मार्गणाओं का वर्णन है। दूसरा खंड खुद्दाबंध (क्षुल्लकबंध ) है । इसके ग्यारह अधिकार हैं। यहाँ ग्यारह प्ररूपणाओं द्वारा कर्मबंध करनेवाले जीव का कर्मबंध के भेदों सहित वर्णन है। तीसरा खंड बंधस्वामि- . त्वविचय है। यहाँ कर्मसम्बन्धी विषयों का कर्मबंध करनेवाले जीव की अपेक्षा से वर्णन है। चौथा खंड वेदना है। इसमें कृत और वेदना नाम के दो अनुयोगद्वार हैं; वेदना के कथन की यहाँ प्रधानता है। पाँचवें खंड का नाम वर्गणा है। इस खंड का प्रधान अधिकार बंधनीय है जिसमें २३ प्रकार की वर्गणाओं का वर्णन है। छठे खंड का नाम महाबंध है। भूतबलि ने पुष्पदंतरचित सूत्रों को मिलाकर, पाँच खंडों के ६००० सूत्र रचने के पश्चात् महाबंध की तीस हजार श्लोकप्रमाण रचना की | इसी ग्रन्थराज को महाधवल के नाम से कहा जाता है। यहाँ प्रकृति, स्थिति अनुभाग और प्रदेश बंधों का बहुत विस्तार से वर्णन किया गया है ।
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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