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२०४ प्राकृत साहित्य का इतिहास पर भी नहीं उठा | यह देखकर नायिका एक मागधिका' पढ़ती है।
अइरुग्गयए य सूरिए, चेइयथूभगए य वायसे । भित्ती गयए व आयवे, सहि ! सुहिओ हु जणो न बुज्मइ ॥
-सूर्य को निकले हुए काफी समय हो गया, कौवे चैत्य के खंभों पर बैठकर काँव-काँव करने लगे, सूर्य का प्रकाश दिवालों तक चढ़ आया, लेकिन है सखि ! फिर भी यह मौजी पुरुष सोकर नहीं उठा। एक सूक्ति देखिये
राईसरिसवमित्ताणि परछिद्दाणि पाससि । अप्पणो बिल्लमित्ताणि पासंतोऽवि न पाससि ॥
-राई के समान तू दूसरे के दोषों को तो देखती है, किन्तु बैल के समान अपने स्वयं के अवगुणों को देखकर भी नहीं देखती।
आवश्यकनियुक्ति नियुक्तियों में आवश्यकनियुक्ति का स्थान बहुत महत्त्व का है।' माणिक्यशेखरसूरि ने इस पर दीपिका लिखी है। आवश्यकसूत्र में प्रतिपादित छह आवश्यकों का विस्तृत विवेचन भद्रबाहु ने आवश्यकनियुक्ति में किया है । यहाँ भद्रबाहु द्वारा
१. हेमचन्द्र के छन्दोनुशासन और उसकी टीका (पृष्ठ २५ अ, पंक्ति ३, निर्णयसागर, बम्बई १९१२ ) में मागधी का लक्षण निम्न प्रकार से दिया है-ओजे चौ युजि पचौ लदलदान्तौ मागधी। अर्थात् इस छंद में विषम पंक्तियों में ४+४+ लघु+२+ लघु +२ और सम पंक्तियों में ६+४+ लघु+२+ लघु+२ मात्रायें होती हैं।
२. मूलाचार में ( ६, १९३) में आवस्लयणिज्जुत्ति का उल्लेख है।