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प्राकृत साहित्य का इतिहास . पहले उद्देशक में ५१ सूत्र हैं। पहले निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थिनियों के कच्चे ताल और प्रलम्ब भक्षण करने का निषेध बताया है।' ग्राम, नगर, खेट, कीटक, मडंब, पत्तन, आकर, द्रोणमुख, निगम, राजधानी, आश्रम, निवेश, संबाध, घोष, अंशिका, पुटभेदन, और संकर आदि स्थानों का प्रतिपादन किया है। एक बड़े और एक दरवाजे वाले ग्राम, नगर आदि में निर्ग्रन्थ
और निर्ग्रन्थिनियों को एक साथ नहीं रहने का विधान है । जिस उपाश्रय के चारों ओर अथवा बाजू में दूकानें हों या आसपास में रास्ते हों, वहाँ निर्ग्रन्थिनियों को रहना योग्य नहीं। उन्हें द्वाररहित खुले उपाश्रय में नहीं रहना चाहिये । ऐसी हालत में परदा (चिलिमिलिका) रखने का विधान है। निर्ग्रन्थ और निम्रन्थिनियों को नदी आदि के किनारे रहने और चित्रकर्म से युक्त उपाश्रय में रहने का निषेध है। वर्षावास में निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थिनियों को विहार करने का निषेध है, हेमन्त और ग्रीष्म ऋतुओं में ही वे विहार कर सकते हैं । वैराज्य अथवा विरुद्धराज्य के समय गमनागमन का निषेध है । रात्रि के समय अथवा विकाल में अशन-पान ग्रहण करने और मार्ग में गमन करने का निषेध है । साकेत के पूर्व में अंग-मगध तक, दक्षिण में कौशांबी तक, पश्चिम में थूणा (स्थानेश्वर) तक और उत्तर में कुणालविषय (उत्तर कौशल) तक गमन करने का विधान है। इन्हीं क्षेत्रों को आर्यक्षेत्र कहा गया है।
दूसरे उद्देशक में बताया है कि जिस उपाश्रय में शालि, ब्रीहि, मूंग आदि फैले पड़े हों, सुरा, सौवीर आदि मद्य के घड़े
१. जान पड़ता है दुर्भिक्ष के समय उत्तर विहार, उड़ीसा और नेपाल आदि देशों में जैन साधुओं को ताड़ के फल खाकर निर्वाह करना पड़ता था।
२. विवेचन के लिये देखिये जगदीशचन्द्र जैन का नागरीप्रचारिणीपत्रिका (वर्ष ५९, सम्वत् २०११ अङ्क ३-४ ) में 'जैन आगम-ग्रन्थों की महत्वपूर्ण शब्द-सूचियाँ' नामक लेख ।