________________
१५२
प्राकृत साहित्य का इतिहास न कर के प्रत्यक्ष में मिलकर, भूल आदि बताकर संभोग (एक साथ भोजन आदि करना) और विसंभोग की विधि बताई है। किसी निम्रन्थिनी को अपने वैयावृत्य के लिये प्रबजित आदि करने का निषेध है | अयोग्य काल में स्वाध्याय का निषेध है। तीन वर्ष की पर्यायवाला श्रमण तीस वर्ष की पर्यायवाली श्रमणी का उपाध्याय ; तथा पाँच वर्ष की पर्यायवाला श्रमण साठ वर्ष की पर्यायवाली श्रमणी का आचार्य बन सकता है।' प्रामानुग्राम विहार करते समय यदि कोई भिक्षु कालधर्म को प्राप्त हो जाये तो प्रासुक निर्जीव स्थान को अच्छी तरह देखभाल कर के उसे वहाँ परिष्ठापन कर दे । सागारिक के घर में रहने के पूर्व उसके पिता, भाई, पुत्र और उसी विधवा कन्या की अनुज्ञा प्राप्त कर लेनी चाहिये । राजा की अनुज्ञा लेकर वसति में ठहरने का विधान है ।
आठवें उद्देशक में १६ सूत्र हैं। स्थाविरों के लिये दंड, भांड, छत्र, मात्रक, यष्टि, वस्त्र और चर्म के उपयोग का विधान है। गृहपति के कुल में पिंडपात ग्रहण करने के लिये प्रविष्ट किसी निम्रन्थ का यदि कोई उपकरण छूट जाये और कोई साधर्मी उसे देख ले तो उसे ले जाकर दे दे। यदि वह उपकरण उसका न हो तो उसे एकान्त में ले जाकर रख दे । यहाँ कवलाहारी, अल्पाहारी और ऊनोदरी निर्ग्रन्थों का उल्लेख किया गया है।
नौवें उद्देशक में ४३ सूत्र हैं । सागारिक के घर में यदि कोई पाहुना, दास, नौकर-चाकर आदि भोजन बनाये और भिक्षु को दे तो उसे ग्रहण न करना चाहिये । सागारिक की चक्रिशाला ( तेल की दुकान ), गोलियशाला (गुड़ की दुकान ), दौषिकशाला (कपड़े की दुकान ) गंधियशाला (सुगंधित पदार्थों की दुकान)
१. बौद्धों के विनयपिटक में कहा गया है-सौ वर्ष की उपसंपदा पाई हुई भिक्षुणी को भी उसी दिन के संपन्न मितु के लिये अभिवादन, प्रत्युस्थान, अञ्जलि जोदना आदि करना चाहिये। भरतसिंह उपाध्याय पालि साहित्य का इतिहास, टप ३२१