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निसीह
१४१ ह्रद, नदी, सर, सागर, और आकर' नामक महों का उल्लेख किया गया है।
नौवें उद्देशक में २८ सूत्र हैं जिन पर २४६६-२६०५ गाथाओं में भाष्य लिखा गया है | भिक्षु के लिये राजपिंड ग्रहण करने का निषेध है। उसे राजा के अंतःपुर में प्रवेश करने की मनाई है ( यहाँ पर भाष्यकार ने जीर्ण अन्तःपुर, नव अंतःपुर और कन्या अन्तःपुर नाम के अंतःपुरों का उल्लेख किया है। दंडधर, दंडारक्खिय, दौवारिक, वर्षधर, कंचुकिपुरुष और महत्तर नामक राजकर्मचारी अन्तःपुर की रक्षा के लिये नियुक्त रहते थे)। क्षत्रिय और मूर्धाभिषिक्त राजाओं का अशन-पान आदि ग्रहण करने का निषेध है। यहाँ पर चंपा, मथुरा, वाराणसी, श्रावस्ती, साकेत, कांपिल्य, कौशांबी, मिथिला, हस्तिनापुर और राजगृह नाम की दस अभिषिक्त राजधानियाँ गिनाई गई हैं जहाँ राजाओं का अभिषेक किया जाता था। अन्त में खुज्जा (कुब्जा), चिलाइया (किरातिका), वामणी (वामनी), वडभी (बड़े पेटवाली) बब्बरी, बउसी, जोणिया, पल्हविया, ईसणी, थारुगिणी, लउसी, लासिया, सिंहली, आरबी, पुलिंदी, सबरी, पारिसी नामक दासियों का उल्लेख है । ___दसवें उद्देशक में ४७ सूत्र हैं जिन पर २६०६-३२७५ गाथाओं का भाष्य है । भिक्षु को आचार्य (भदंत ) के प्रति कठोर एवं कर्कश वचन नहीं बोलने चाहिये | आचार्य की आशातना (तिरस्कार ) नहीं करनी चाहिये | अनन्तकाययुक्त आहार का भक्षण नहीं करना चाहिये। लाभ-अलाभसंबंधी निमित्त के कथन का निषेध है। प्रव्रज्या आदि के लिये शिष्य के अपहरण करने का निषेध है। अन्यगच्छीय साधु-साध्वी
१. इन उत्सवों के लिये देखिये जगदीशचन्द्र जैन, लाइफ इन ऐशियेण्ट इण्डिया, पृष्ठ २१५.२५ ।
२. विशेष के लिये देखिये वही पृष्ठ ५५-५६ । ३. तथा देखिए व्याख्याप्रज्ञप्ति ९.६, ज्ञातृधर्मकथा । .