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१२४ प्राकृत साहित्य का इतिहास से यह रचना वीरभद्रकृत मानी जाती है। इस पर भुवनतुंग की वृत्ति और गुणरत्न की अवचूरि है ।
आउरपञ्चक्खाण ( आतुरप्रत्याख्यान) इसे बृहदातुरप्रत्याख्यान भी कहा है। इसमें ७० गाथायें हैं। दस गाथाओं के बाद का कुछ भाग गद्य में है। यहाँ बालमरण और पंडितमरण के सम्बन्ध में विस्तृत विवेचन है। प्रत्याख्यान को शाश्वत गति का साधक बताया है। इसके कर्ता भी वीरभद्र माने जाते हैं।' इस पर भी भुवनतुङ्ग ने वृत्ति और गुणरत्न ने अवचूरि लिखी है।
महापचक्खाण ( महाप्रत्याख्यान ) इसमें १४२ गाथायें हैं जिसमें से कुछ अनुष्टुप् छन्द में हैं। यहाँ दुष्चरित्र की निन्दा की गई है। एकत्व भावना, माया का त्याग, संसार-परिभ्रमण, पंडितमरण, पुद्गलों से अतृप्ति, पाँच महाव्रत, दुष्कृतनिन्दा, वैराग्य के कारण, व्युत्सर्जन, आराधना आदि विविध विषयों पर यहाँ विचार किया गया है। प्रत्याख्यान के पालन करने से सिद्धि बताई है।
भत्तपरिणय ( भक्तपरिज्ञा) इसमें १७२ गाथायें हैं । अभ्युद्यत मरण द्वारा आराधना होती है। इस मरण को भक्तपरिज्ञा, इंगिनी और पादोपगमन के भेद से तीन प्रकार का बताया है। दर्शन को मुख्य बताते हुए कहा है कि दर्शन से भ्रष्ट होनेवालों को निर्वाण की प्राप्ति नहीं होती| घोर कष्ट सहन कर सिद्धि पानेवालों के अनेक दृष्टान्त दिये हैं। मन को बंदर की उपमा देते हुए कहा है कि जैसे बंदर एक क्षण भर के लिये भी शान्त नहीं बैठ सकता, वैसे ही मन कभी निर्विषय नहीं होता। स्त्रियों को भुजंगी की उपमा देते हुए
१. इस प्रकीर्णक की कुछ गाथायें मूलाचार में पाई जाती हैं।