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लक्ष्य में यह रखने की है, जैसा कि यहां जैन उपदेश दिया गया है
विशेष, ज्ञान मात्र का सार तो यही है कि, किसी भी जीव की हिंसा न करे । प्राणी त्रस ( जंगम) या स्थावर निश्चित कारणों से होते हैं, जीव की दृष्टि से तो यह सब समान हैं ।' स ( जंगम ) प्राणियों को तो देखवर ही जान सकते हैं। अपने समान किसी को भी दुःख अच्छा नहीं लगता, इसलिये किसी की हिंसा न करे । हिंसा का सिद्धान्त तो यही है । अतएव मुमुटु चलने, सोने, बैठ खाने-पीने में सतत् जागृत, संयमी और निरासक्त रहे तथा क्रोध, मान, माया और लोभ छोडे । इस प्रकार समिति (पांच समितियोंसम्यक् प्रवृत्तियों से युक्त - सम्यक् प्रचार वाला) हों; तथा कर्म आत्मा से लिप्त न हो इसके लिये अहिंसा, सत्य श्रादि पांच महाव्रतरूपी संवर ( अर्थात् कर्माविरोधक छत्र ) द्वारा सुरक्षित बने । ऐसा करके कर्मबन्धन के इस लोक में पवित्र भिक्षु पूर्णता प्राप्त करने तक रहे । [ पृष्ठ - सूत्र ८-१३ ]
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अहमदाबाद,
श्रावण शुक्ल १५ सं. १६६२
आनन्दशंकर बापूभाई ध्रुव,
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एम्. ए. एल एल. बी.
( रिटायर्ड वाइस चान्सलर . हिन्दू युनिवर्सिटी, बनारस. )
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