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तेरह क्रियास्थान
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वे अपने सम्बन्ध में चाहे जैसी झूठी-सच्ची बातें दूसरों को कहते फिरते हैं। जैसे, दूपरों को मारो पर हमे न मारो; दूसरों को आज्ञा करो
पर हमको नहीं, दूसरों को दण्ड दो पर हमें नहीं, दसरों को प्राण. दण्ड दो पर हमें नहीं । ये लोग कुछ समय तक कामभोग भोग -...कर नियत समय पर मृत्यु को प्राप्त होकर असुर और पातकियों के
स्थान को प्राप्त होते हैं, वहां से छटने पर बारबार जन्म से गूंगेबहरे: अंधे या सिर्फ गूंगे होते हैं।
. इन बारह .. क्रियास्थानों को मुमुक्षु श्रमणब्राह्मण अच्छी तरह ....समझ कर स्वांग दे क्योंकि ये सब अधर्म के स्थाच हैं। ... . हे वत्स, अब मैं तुझे तेरहवा ईपिथिक क्रिया स्थान कहता हूँ। पथिक अर्थात् शुद्ध साधुजीवन (ईपिथ) व्यतीत करने वाले मुनि से
भी अनजान में अवश्य होने वाली स्वाभाविक क्रिया के कारण होने - पाला पाप । अात्मभाव में स्थिर रहने के लिये सब प्रकार की मन,
वचन और काया की प्रवृत्तियां सावधान हो कर करने वाले और - इन्द्रियों को वश में रखकर सब दोषों से अपने को बचाने वाले संयमी - मुनि से भी पलकों के हिलने के समान सूक्ष्म क्रियाएं हो ही जाती .हैं; इससे उसे कर्म का बंध होता है । परन्तु वे कर्म प्रथम क्षण में . बंधते हैं और श्रात्मा के सम्बन्ध में आते हैं, दूसरे क्षण में अनुभव :
हो जाता है और तीसरे क्षण में नाश हो जाता हैं। इस प्रकार भिक्षु ।
उन कर्मों से तो रहित हो जाता है। (प्रवृति मात्र से श्रात्मा में :.. कर्म का प्रवेश होने के लिये मार्ग खुल जाता है। यदि वे प्रवृत्तिया
क्रोध, लोभ आदि कपायों से हो तो कर्भ श्रात्मा से चिपक कर .. - स्थिति को प्राप्त होते हैं अन्यथा वे सख्त दीवाल पर फेंके .. जाने वाले लकड़ी के गोले के उप्पे समान तुरन्त ही मिट जाते हैं।)