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पुंडरीक
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काम-भोग जिनके स्वाधीन हैं, ऐसा देव बनूं या सर्व प्रकार के श्रनिष्टो से रहित सिद्ध होऊं या इस लोक में जन्म प्राप्तः करूं न करूं ।
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मर्यादा का ध्यान रखने वाला वह भिक्षु घूमते-घूमते जहां जाता है, वहां स्वभावतः धर्मोपदेश करता है । कोई पत्रज्या लेने को तैयार हो अथवा न हो तो भी सब सुनने की इच्छा रखने वालों को शांति, वैराग्य, निर्वाण, शौच, ऋजुता, मृदुता, लघुता, तथा सब जीवों, प्राणों, भूतों और सत्वों की श्रहिंसा का धर्म कह सुनाता है । टिप्पणी- यहां जीव, प्राण, भूत और सच्च समानार्थ हैं किन्तु भेद के लिये कोई २ - पंचेन्द्रिय जीवों को जीव, दो-तीन-चार इन्द्रिय जीवों को प्राण, वनस्पति के जीवों को भूत और पृथ्वी, जल, वायु तथा नि के जीवों को सत्त्व मानते हैं ।
वह भिक्षु अन्न, पान, वस्त्र, स्थान, बिस्तर या अन्य कामभोगों के लिये धर्मोपदेश नहीं देता किंतु अपने पूर्व कर्मों के कारण बिना
ग्लानि के देता है ।
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ऐसे गुणवान भिक्षु के पास धर्म सुनकर समझकर पराक्रमी पुरुष उस धर्म में प्रवृत्त होते हैं उसके द्वारा सर्व शुभ साधन संपत्ति से युक्त होते हैं; सब पापस्थानों से निवृत्त होते हैं; और संपूर्ण सिद्धि को प्राप्त करते हैं ।
इस प्रकार धर्म ही में प्रयोजन रखनेवाला, धर्मविद् तथा मोक्षपरायण कोई भिक्षु ही कमलों में श्रेष्ठ उस श्वेत कमल को प्राप्त कर सकता है, या न भी प्राप्त करे । कर्म संग तथा संसार का स्वरूप जानने वाला और सम्यकू
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