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________________ ४३८ प्रवचनसार कर्णिका . । (७) नारद एक शील के प्रताप से ही सुखको प्राप्त हुये हैं।.: . - (८) शियल व्रत का धारक हमेशा पवित्र है। (९) शीलवान आत्मा इस लोक में पुजाता है और परलोक. में भी पुजाता है। (१०) काष्ठ को जलाने के लिये अग्नि-समर्थ है त्यों कर्म ___ काप्ट को जलाने के लिये तप समर्थ है। (११) अनंत ज्ञानीयों की आज्ञा सुजब का तप कर्मकाण्ड को भस्मीभूत करता है। (१२) रोग दूर करने के लिये जैसे रोगी को कडवी औषधि लेनी पडती है। फिर भी वह इच्छा बिना लेता है। उसी प्रसार खाता हुआ सी इच्छा विना जो खाता है वह तपस्वी है। (१३) औपधि लेनेले जैसे बाहर के रोम मिटते हैं उसी तरह . तप करने से अंतरके रोन मिटते हैं। . (१४) भावपूर्वक किया गया धर्म सार्थक है। भाव विना : . वेठ (वेगार) की तरह किया गया धर्म निरर्थक है। . (१५) शुद्ध भाव अंतरसें नहीं आनें तब तक कर्मोंज्ञा जाना शस्य नहीं है। (१६) भावना का बल जवरजस्त है। भरत महाराजा अरीसा . (दर्पण) भवन में भावना भाते भाते केवल ज्ञानको . प्राप्त हुये (१७) संसारमें रह करके, राज्यको संभालते हुये भी पृथ्वी चन्द्र महाराजा राज्य सिंहासन पर बैठे बैठे भावना धिरूढ वनकरके केवल लक्ष्मी को प्राप्त हुये। ... . (१८) गुण सागर चारी मंडप में (लग्नमंडप) लग्न करने बैठे थे फिर भी भावना के वल से. केवल श्री को प्राप्त हुये।
SR No.010727
Book TitlePravachan Ganga yane Pravachan Sara Karnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvansuri
PublisherVijaybhuvansuri Gyanmandir Ahmedabad
Publication Year
Total Pages499
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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