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________________ व्याख्यान- बत्तीसवाँ ४१३ः के पारगामी आर्यरक्षित ने अपनी कुशाग्रबुद्धि से जैनागमों का शिक्षण अल्प समय में प्राप्त कर लिया | आचार्य महाराज को भी इससे सन्तोष होने लगा । अनेक शिष्य होनेपर भी आर्यरक्षित पर उनका प्रेस अधिक होने लगा । जो शिष्य बुद्धिशाली और प्रभावशाली : तथा प्रभावक हो तो किस गुरू को लन्तोष नहीं हो ? धीरे धीरे आर्यरक्षित साडानयपूर्व के अभ्यासी बन गए । गुरू महाराज के अनेक शिप उनकी सेवा के लिये हाजिर रहते थे । गुरू महाराज ने अपने शिष्य को योग्य देख करके: आचार्यपद पर विराजमान करने का विचार किया। संघ के अग्रणीयों के साथ बातचीत करके तय किया कि यह चौमाला पूर्ण होने के बाद आचार्य पदवी दे देना । इस तरफ आर्यरक्षित की माताने अपने छोटे पुन्न फल्गुरक्षित से कहा वत्स ! तेरा भाई तोषलीक नाम के आचार्य महाराज के पास गया है। वह अभी तक नहीं आया । इसलिये तू उसको ले था । तू उसकी आज्ञा प्रमाण करना । . फल्गुरक्षित ने कहा अच्छा माताजी ! माता का आशी-र्वाद लेकरके विदा हो गया । जहां तोपलीक नाम के आचार्य महाराज विराजमान थे - वहाँ वहाँ फल्गुरक्षित आया । वंदन करने के बाद भाई के समाचार सुनके अति प्रसन्न हुआ । फिर वह आर्यरक्षित मुनिको मिला । आर्यरक्षित के दिल में भाई के प्रति प्रेम था इसलिये उनने निर्णय किया कि भाई को भी दीक्षा देना । फल्गुरक्षित ने कहा कि साहब, माताजी ने आप को लेने के लिये मुझे भेजा है । इसलिये आप पधारो ।
SR No.010727
Book TitlePravachan Ganga yane Pravachan Sara Karnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvansuri
PublisherVijaybhuvansuri Gyanmandir Ahmedabad
Publication Year
Total Pages499
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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