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________________ - प्रवचनसार कर्णिका.. 'था। लेकिन भाई मुनि जब तक छुट्टी नहीं दें तब तक पीछे जाय किस तरह ले ? स्वस्थाने पहुंचने के बाद अवदत्त मुनि भवदेव से . 'घूछने लगे कि तुझे दीक्षा लेना है ? शरम से भाई ना नहीं कह सका । और भवदेव भी दीक्षित वन गया । मुनि अवस्था में भी मन तो नागीला में ही रम रहा था। एक लमय भी नागीला विलराती नहीं थी। आखिर मुनिमंडल अन्धन विहार कर गरे । दीक्षा विनाभाव शरम से ली थी। प्रतिसमय दिलमें नागीला का ध्यान चालू था । एसा करते करते. वारह वर्ष का समय बीत गया । यहां लज्ज बनी नागीला अपने पतिकी राह देख देख के थक गई। अंतमें उसने मान लिया कि मेरे पति भी आई मुनिके साथ चले गये। और संयम स्वीकार लिया। बारह वर्ष के बाद अवदेव सुनि विहार करते करते अपनी नगरीमें आये। सन से तैयार होके आये थे कि घर जाना नगीला के पास से क्षमा मागना और साधुपना छोड़ देना इस विचार से वे घर आये थे । गाँध के बाहर कुवा के किनारे नगर की नारियां — पानी भर रही थीं। शरीर ले कृश वनी पानी भरने को आई एक नारी. से अबदेव सुनि पूछने लगे कि वहन ! मेरी नागीला तो मजामें है? . मुनि जिसले पूछ रहे थे वह नारी दूसरी कोई नहीं किन्तु खुद नागीला ही थी।
SR No.010727
Book TitlePravachan Ganga yane Pravachan Sara Karnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvansuri
PublisherVijaybhuvansuri Gyanmandir Ahmedabad
Publication Year
Total Pages499
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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