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________________ ૩૯૨ प्रवचनसार कणिका रावण ऊपर आके वालीं मुनिले क्षमा मांगने लगा । यहां वाली मुनिको क्रोध आया लेकिन यह क्रोध प्रशस्त कहा जाता है । प्रशस्त क्रोध करने की जैन शासन की आज्ञा है । पर वस्तुकी इच्छा करना उसका नाम दुःख ! अपनी मालिकी की वस्तु भी पुन्यके विना नहीं भोग सकते । " परस्पृहा महादुःखं ! " पर वस्तुकी स्पृहा में महा दुःख है । आत्मानंदी तो स्ववस्तु में ही रमण करनेवाले होते हैं । पर वस्तुकी इच्छा द्रव्यानंदी अथवा भवानंदी को होती है । आत्म धर्मको चूक करके तेईस विषयों के पीछे अंध चनके चलना यह अंधापा है । भूलको नहीं करे वह प्रथम नंवरका है। भूल करके पश्चात्ताप करे वह दूसरे नंवरका है । भूल करने पर भी भूलको भूल तरीके नहीं स्वीकारे वह अधम कहलाता है । तुम्हारे जीवनमें कभी भूल हो जाय तो समझ के सुधारने के लिये प्रयत्न करना । सांसारिक अनेक विध भोगोपभोग की सामग्री में आसक्त वने रहके जीवन सुधारणा की अपेक्षा करनेवाले को नागदत्त शेठका वृत्तान्त समझने जैसा है । वारह वर्ष से नागदत्त शेठ एक भव्य प्रासाद वंधा रहे थे । एक समय कलाकारों के साथ वह शेठ वातचीत कर रहे थे । तब वहां से एक ज्ञानी मुनिराज पसार हो रहे थे । नागदत्त की बात सुनके मुनिराज को हँसन आया | नागदत्त विचारमें पड़ गए । दूसरे दिन नागदत्त जीमने वैठे। छोटा वालक रोता था जिससे जीमता जाय और पालना झुलाता जाय। वहां
SR No.010727
Book TitlePravachan Ganga yane Pravachan Sara Karnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvansuri
PublisherVijaybhuvansuri Gyanmandir Ahmedabad
Publication Year
Total Pages499
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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