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________________ - - ३३० प्रवचनसार कर्णिका अल्पसंसारी, वहुसंसारी, अनन्त संसारी और चरमा- . वर्ती इस प्रकार जीव चार प्रकारके हैं। कितने जीव तो सुलभवोधि होते हैं और कितने ही जीव हुर्लभवोधि होते हैं ! निरतिचार धर्म करनेवाले को आराधक कहा जाता. है । चौसठ इन्द्र समकिती ही होते हैं। भगवानकी भक्ति दो तरह से होती है। आत्माको रंजन करने के लिये और लोकरंजन करने के लिये। उसमें आत्माके रंजनको की जानेवाली भक्ति ही सच्ची भक्ति है। चौसठ हजार सामानिक देव भगवान पर्षदा का रक्षण करने के लिये और भगवानकी भक्ति करने के लिये आते हैं । देव देवी भगवानको आके कहते हैं कि हे भगवन् । - हम आपके समक्ष नाटक करना सांगते हैं। तव भगवान कुछ भी नहीं बोलते हैं। मौन रहे। क्योंकि भगवानकी भक्ति नहीं चाहिये । सेवक की फर्ज है कि भगवानको कहे विना भी भक्ति करे । . इसी प्रकार गुरुकी भक्ति के विषयमें भी शिष्यको समझ लेना चाहिये। कपूरचन्द नामके एक शेठ थे। वे सुबह किसी गाँवले या रहे थे। वहां गाँवके पादरले (अगीवरी भाग) रास्ता की तरफले खाडासें से (गड्ढे में से) उनके कान पर गिन्नी की आवाज आई। वह आवाज सुनके शेठ एक. वृक्षकी आडमें. छिपकर यह क्या हो रहा है ? यह देखने लगे।
SR No.010727
Book TitlePravachan Ganga yane Pravachan Sara Karnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvansuri
PublisherVijaybhuvansuri Gyanmandir Ahmedabad
Publication Year
Total Pages499
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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