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________________ व्याख्यान-पच्चीसवाँ । . हंसते हंसते हो गई मश्करी नन्दिपेण के हृदय में उतर गई । इनको लगा कि अव फिरसे संयम के मार्ग जाने का समय पक गया है। . गणिका तो रोती ही रही । और मुनिवर चलनिकले। . वनाये हुये भोजन पसे के एसे ही पडे रहे। प्रभु महावीर के चरणमें पुनः विराज के मुनि नन्दिषेण ने जीवन सफल करने का प्रयाण किया। ... वेश्याने खूब समझाया प्रार्थनायें की मगर नन्दिषेण ने नहीं माना । क्योंकि उनके भोगावली कर्म पूरे हो गये थे। वेश्याके संग का त्याग करते हुये देर नहीं लगी। चले प्रभुके चरणमें । आके चरणमें भाव पूर्वक नमस्कार किया । पुनः दीक्षा लेके आत्म साधना में तदाकार वन गये । .. . . . . . वेश्याको तो कल्पना भी नहीं थी कि एसे एक शब्दले एसा हो जायगा । वेश्या खूब :पश्चात्ताप करने लगी। भूल होना ये सहज है किन्तु हो गई. भूलका पश्चात्ताप. करना अलहज है। जिल आत्माको पश्चात्ताप हो जाय वह आत्मा धन्यवाद के पात्र है । उग्र तपश्चर्या के द्वारा यात्माको निर्मल बनाने के लिये नन्दिषेण लयलीन न हो गये। . . - इसी तरह अपन भी कल्याण के पंथके अनुगामी वर्ने यही मनो कामना।
SR No.010727
Book TitlePravachan Ganga yane Pravachan Sara Karnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvansuri
PublisherVijaybhuvansuri Gyanmandir Ahmedabad
Publication Year
Total Pages499
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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