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________________ - - - - ३२२ प्रवचनसार-कणिका तमाम प्रवृति कर्म निर्जर करने वाली ही होती है। . परन्तु उन परमात्मा का जीवन ज्ञान प्रधात होता है। और अपना जीवन आज्ञा प्रधान होना चाहिये । उपधान की माला ये सभी मालाओं में उत्तम माला है। क्योकि उपधान तप ये साधुता की (सर्व विरतिपणा) की वानगी है। तीर्थंकर भगवान जव चालक होते हैं तव उन्हें खिलाने के लिये देव भी आते हैं। भगवान ऋषभदेव के लग्न इन्द्र महाराज ने आके किये थे। तभी से लग्न प्रथा चालु हुई । लोक व्यवहार को बताने वाले आदिनाथ प्रभु हैं । पुत्र पुत्री के लग्न होना हो तो दो महीना पहले से घर में वाईयां काम करती जाये और गीत गाती जायें राग की कितनी पराधीनता ! यह पराधीनता जवतक नहीं जाय तबतक ये सव लग्न कर्म बन्धन में ही निमित वनने वाले हैं । परन्तु धर्मी आत्मा समझे कि संसार में बैठा हूं। इसलिए करना ही पड़ेगा । इसलिए करता हूं। परन्तु भावना को टिका रखने के लिए उस प्रसंग में साथ साथ में प्रभु भक्ति के निमित्त जिन मन्दिर में महोत्सव चालु रक्खा जाय तो करने पडते संसारी कार्यों से होने वाले कर्म बन्धन की तीव्रता से बचा जा सकता है। साधुपना लेने के पीछे भिक्षा लेने कौन जा सकता लो गीतार्थ हो, दश वैकालिक के पांच उदेशा का जानने वाला हो, पिन्ड नियुक्ति आदि का जिसे ज्ञान हो । इसलिए गीतार्थ की गोचरी कल्पे । अगीतार्थ की गोचरी न. खपै और वापरे तो दोष लगे।
SR No.010727
Book TitlePravachan Ganga yane Pravachan Sara Karnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvansuri
PublisherVijaybhuvansuri Gyanmandir Ahmedabad
Publication Year
Total Pages499
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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