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________________ ५७१. 'व्याख्यान-उन्नीसवाँ . भक्तिके रस में तरवोल (तल्लीन) अवस्थावंत मनुष्य को शारीरिक पिडायें अनुभव में भी नहीं आतीं । वे तो भक्ति रसमें इतने मशगूल बन जाते हैं कि परमात्मा के सिवाय दूसरी कोई भी वस्तु उनके लक्ष में भी नहीं आती है। एसी भक्ति ही मुक्ति की दाता वनती है। प्रभुके सामने किया गया नृत्य जो केवल आनंदप्रमोद के लिये और जनरंजन के लिये किया जाता हो तो उस नृत्य की प्राप्ति आत्महित के लिये लेश मात्र भी नहीं होती। आज तो साप गया और लीसोटा (लकीरें) रह गई जैसी स्थिति में आजकी नृत्य मंडलियाँ काम कर रहीं हैं। - भक्तिरस से भरपूर मन्दोदरी का नृत्य और रावण की अस्खलित वीणाकी सुरावली देखने के लिये देव भी वहाँ आकर खड़े हो गए। सब एक ही नजरसे इस भक्ति के प्रोग्राम को देख रहे थे। . भक्ति की तल्लीनताने रावण के अनेक पापोंको चूर चूर कर दिया और उस समय विश्वोद्धारक तीर्थंकर नाम कर्मके दलीया को इकट्ठा किया। भक्ति का प्रोग्राम पूरा करके रावण और मन्दोदरी जिन मन्दिर के वाहर आये। तव देव विनती करके कहने लगे कि हम आपकी भक्तिः से प्रसन्न हुए। इसलिये हमारे पास से जो मांगोंगे उसे हम देने को तैयार हैं। रावणने कहा कि गुणानुरागी देव! हमने हमारी कर्म निर्जरा के लिये भक्ति करी इसलिये हम्हें दूसरी किसी वस्तु की स्पृहा नहीं है। एसा कहके वहाँसे विदा हुआ।
SR No.010727
Book TitlePravachan Ganga yane Pravachan Sara Karnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvansuri
PublisherVijaybhuvansuri Gyanmandir Ahmedabad
Publication Year
Total Pages499
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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