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प्रवचनसार कणिका.. सकरकंद (सकला) थेग, हरा ओदा वगैरह वगैरह-जिसमें अनन्त जीवों के बीच एक ही शरीर है एसी अनन्त काय वनस्पति वादर निगोद में प्रवेश कर के वहुत रझला (फिरा) वहुत वेदना भोग कर के वहां से भी अकाम निर्जरा के योग से पुण्य की राशि बढने से अनुक्रम से यह मनुष्य . भव प्राप्त किया। : इतना तो सब कोई समझ सकता है कि एक. दफे जिस काम को करने से वहुत वेदना हों, जिसले. पारावार (बेशुमार) नुकशान हुआ हो, और जिससे मरणांत कष्ट हुआ हो उस कार्य में भूर्ख मनुष्य भी प्रवृत्ति नहीं करता है। तो फिर समझदार और सुज्ञ मनुष्य तो एसी प्रवृत्ति करेगा ही क्यों ? फिर भी जो एसे अघोर पाप करके निगोद के स्थानमें जाने जैसी प्रवृत्ति करे तो उसे कैसा समझना ? उसका भव्य जीवों को स्वयं विचार करना चाहिये। । ये वचन श्री सर्वज्ञ प्रभुके हैं। सर्वज्ञ प्रभु के राग और द्वेष मूल से नाश हो गये होते हैं । ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय ये चार घातीकर्म के बन्ध, उदय, उदीरणा और सत्ता की कर्म प्रकृति भूल से नाश होने के कारण आत्मा की अपूर्व शक्ति प्रगट होने से केवलज्ञान के द्वारा यथास्थित वस्तु जैसे स्वरूप में है उसी तरह से देख करके भव्य जीवोंको बताते हैं। लोकालोक का स्वरूप समय समयमें उनके केवलज्ञान में प्रकाशित हो रहा है। इसलिये उनके द्वारा बताये हुए. निगोदादि अतीन्द्रिय पदार्थों में लेश मात्र भी शंका करने
जैसी नहीं है। इस कारणले "तमेव सच्चं जं जिणे हि . भासियं ।" वही सच्चा है जो जिनेश्वर देवने भाखा है। .