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________________ प्रस्तावना यह बात निर्विवाद है कि हम विभिन्न वस्तुओं के सम्पर्क में आते रहते है । हम प्रांगों से रग देखते है, कानो मे ध्वनि सुनते है, नाक से गध का ग्रहण करते है, जीभ से स्वाद लेते हैं तथा स्पर्शन मे स्पर्श का अनुभव करते है। इस तरह मे हम अपनी पाचो इन्द्रियो द्वारा वस्तुओ से ससर्ग बनाये रखते है। इन्द्रियो के माध्यम से हम वस्तु-जगत् से जुड़े रहते हैं । यह वस्तु-जगत् ही प्राचार्य कुन्दकुन्द के शब्दो में पुद्गल द्रव्य है । उम पुद्गल द्रव्य मे वर्ण, रस, गध और स्पर्श वर्तमान रहते है तथा जो विभिन्न प्रकार का शब्द है, वह भी पुद्गल है (9)। पुद्गल के क्षेत्र को समझाते हुए प्राचार्य कुन्दकुन्द कहते है कि इन्द्रिया तथा इन्द्रियो द्वारा भोगे जाने योग्य विषय, शरीर, वाणी तथा अन्य भौतिक वस्तुए मनी पुद्गल पिण्ड है (113, 114)। पदगलात्मक वम्तयो के माय-साथ हमारे चारो ओर वनस्पति, कीट, पशुपक्षी और मनुष्य भी वर्तमान है । इन सभी में एक और पुद्गल के गुण वर्तमान है तो दूसरी पोर वढना, भयभीत होना तथा सुखी-दुखी होने की स्थितिया भी दृष्टिगोचर होती है । इस तरह से यह दो द्रव्यो की मिश्रित अवस्था है। एक पोर पुद्गल द्रव्य है तो दूसरी ओर जीव द्रव्य । प्राचार्य कुन्दकुन्द इन सभी को गमार में स्थित जीव कहते है (22), यह दो द्रव्यो की मिश्रित अवस्था है। पुदगल के माय जीव की उपस्थिति ही मे यह मिश्रण उत्पन्न होता है। पुद्गल जीव को विभिन्न अशो में यावद्ध किये हुए रहता है। पुद्गल और जीव की मिश्रित अरस्था में जव पुद्गल जीव पर अधिकतम दबाव डालता है तो एक इन्द्रिय (म्पर्णन) ही का विकास हो पाता है। जैसे-जैसे यह दबाव कम होता जाता है वैम-बैंग दो इन्द्रिया (स्पर्शन और रसना), तीन इन्द्रिया (स्पर्शन, रसना और घ्राण), चार इन्द्रिया, (म्पर्शन, रमना, घ्राण और चक्षु) और पात्र इन्द्रिया (म्पर्णन, रमना, प्राण, चक्षु और कर्ण) विकसित हो जाती है (28-34)। प्राचार्य कुन्दकुन्द का कथन है कि एक इन्द्रियवाले जीवो मे केवल सुखदु यात्मक चेतना ही क्रियाणील होती है। दो इन्द्रिय मे पचेन्द्रिय तक के जीवो (1)
SR No.010720
Book TitleAacharya Kundakunda Dravyavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1989
Total Pages123
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
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