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दृष्टि है ( 43 ) । इम तरह से निश्त्रयनय मे श्रात्मा मे पुद्गल के कोई भी गुण नही हैं । त आत्मा रसरहित, रूपरहित, गन्धरहित, तथा श्रदृश्यमान है, उसका स्वभाव चेतना है । उसका ग्रहरण विना किमी चिह्न के ( केवल अनुभव मे ) होना है और उसका श्राकार प्रतिपादित है ( 44 ) ।
प्राचार्य कुन्दकुन्द का कथन है कि व्यवहार नय के अनुसार श्रात्मा श्रनेक प्रकार के पुद्गल कर्मों को करता है तथा वह अनेक प्रकार के पुद्गल कर्मो के फलो को भोगता है (79) चूंकि व्यवहारनय चेतना की परतन्त्रता में निर्मित eft है इसीलिए अज्ञानी कर्ता व्यवहारनय के श्राश्रय से चलता है । निश्चयनय के अनुसार श्रात्मा पुद्गल कर्मों को उत्पन्न नही करता है । चूंकि निश्चय-दृष्टि चेतना की स्वतन्त्रता पर ग्राश्रित दृष्टि है, इसीलिए ज्ञानी कर्ता निश्चयनय के आश्रय से चलता है । सच तो यह है कि श्रात्मा जिम भाव को अपने मे उत्पन्न करता है वह उसका कर्ता होता है । जानी का यह भाव ज्ञानमय होता है और अज्ञानी का भाव अज्ञानमय होता है (75) । जैसे कनकमय वस्तु मे कनक कुण्डल आदि वस्तु उत्पन्न होती हैं और लोहमय वस्तु मे लौह कडे आदि उत्पन्न होने है, वैसे ही अज्ञानी के अनेक प्रकार के अज्ञानमय भाव ही उत्पन्न होने है तथा ज्ञानी के सभी भाव ज्ञानमय होते है (76,77 )
श्राचार्य कुन्दकुन्द ने तीन प्रकार के भावों का ( शुभ, ग्रशुभ और शुद्ध ) विश्लेषण करते हुए कहा है कि शुद्ध भाव ही ग्रहण किया जाना चाहिये, व्यक्ति की उच्चतम अवस्था इसी को ग्रहण करने मे उत्पन्न होती है । जिम व्यक्ति का जीवन विषय-कपायो मे डूबा हुआ है, जिसका जीवन दुष्ट मिद्धान्न, दुष्ट बुद्धि तथा दुष्टचर्या मे जुडा हुआ है, जिसके जीवन मे क्रूरता है तथा जो कुपथ मे लीन है, वह अशुभ भाव को धारण करने वाला कहा जाता है (92) जो व्यक्ति जीवो पर दयावान है, देव, माघु तथा गुरु की भक्ति मे लीन है, जिसके जीवन मे अनुकम्पा है, जो भूखे-प्यासे तथा दुखी प्राणी को देखकर उसके साथ दयालुता मे व्यवहार करता है वह शुभ भाव वाला कहा गया है ( 91, 82, 84, 86 ) 1 जीव का शुभ भाव ही पुण्य है, और अशुभ भाव ही पाप है । आचार्य कुन्दकुन्द का कहना है कि जो व्यक्ति पाप मे उत्पन्न मानसिक तनाव को समाप्त करता है तथा पुण्य क्रियाश्रो से उत्पन्न मानसिक तनाव को समाप्त करता है वही व्यक्ति शुद्ध भाव की भूमिका पर आरूढ होता है । ऐसा व्यक्ति ही शुद्धोपयोगी कहलाता है । वही व्यक्ति पूर्णतया समतावान होता है ।
पूर्ण समतावान बनने के लिए चारित्र की माघना महत्वपूर्ण है । जो व्यक्ति निश्चयनय के आश्रय मे चलता है वही सम्यकदृष्टि होता है ( 45 ) क्योकि
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