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________________ प्राचार्यश्री तुलसीमाभिनन्दन प्रस्थ [प्रथम प्रायः यह होता है कि यदि मनुष्य किसी भी व्यक्ति को मोर अत्यन्त ध्यानपूर्वक देखता है तो उसके मुख पर द्वेष, प्रेम या उत्तेजना के भाव उत्पन्न हो जाते हैं, किन्तु प्राचार्यश्री के विशाल विवेक पूर्ण और काले नेत्रों में इनमें से एक भी नहीं पाया गया । मुझे ऐसा लगा उनकी दृष्टि मेरे शरीर को चीर कर हृदय तक पहुंच रही है और उन्होंने मेरा अन्तर हृदय पहचान लिया है। पहले-पहल मुझे इस प्रकार का अकेलापन थोड़ा अखरा, किन्तु बाद में उनके सामने मेरी यह भावना लुप्त हो गई। मेरे हृदय में नाना प्रकार के भाव तरंग उछलने लगे। मैंने एकाएक ही अनुभव किया कि मैं अय अकेला नहीं हूँ। मुझे लगा कि मेरे अनुकूल विचार समझे गये हैं और प्रतिकूल विचारों की निन्दा नहीं की गई है । अर्थात् मेरे अच्छे विचार के कारण मझे स्वागत मिल रहा है और बुरे विचारों के कारण मेरी निन्दा नहीं की जा रही है । अचानक ही मेरी स्मृति में अपने शैशव काल का विस्तृत स्वणिम जगत स्पष्ट हो गया-निराशा के कारण से नहीं। युवाकाल की स्मृति रहती है, किन्तु उसके साथ जो संशय होता है, वह नष्ट हो गया। मेरा हृदय अच्छे और प्रानन्ददायक विचारों मे भर गया। मैं जानता है कि इन शब्दों में जो कुछ मैंने लिखा है, वह अतिशयोक्ति-सा लगता होगा, किन्तु वह अपना कार्य समचित रूप से करता है और प्राचार्यथी के साथ वार्तालाप के समय प्रत्येक क्षण में मेरे हृदय पर नियन्त्रण करने वाली भावनाओं का वर्णन मैंने किया है। वास्तव में तो, संत पुरुषों का यह स्वभाव ही होता है कि वे दूसरों के मन में अच्छे विचारों को उत्पन्न कर देते हैं और उन विचारों को अच्छे कार्य के रूप में परिणत करना तो यह हमारा काम है। प्रतिदिन तीन बार प्राचार्यश्री प्रवचन देते हैं, जिनमें सहस्रों की संख्या में लोगों की उपस्थिति होती है। उनके अनुयायी लोग बहुत अंशों में राजस्थान और पंजाब के वासी हैं और उनमें से अधिकतर मारवाड़ी हैं, जो कि भारत के व्यापारियों में सबसे अधिक पनिक और परिग्रहासक्त हैं। प्राचार्यश्री उनको अपरिग्रह और सदाचार का उपदेश देते हैं । वह एक कैसा विरोधाभाम था। एक मोर जहाँ उनके अनुयायी-जो कि बछुत अच्छे व्यापारी लोग हैं, जो कि धोखाबाजी से लाखों रुपये कमाते हैं, जो सारी दुनिया के साथ व्यापार का सम्बन्ध रखते हैं, जो कर की चोरी करने के मब तरीकों को काम में लेते हैं और विश्वासघात करते है। दुमरी पोर ये छोटे कद के प्राचार्यश्री जिनके पास अपना कुछ नही है न घर है, न मन्दिर है, न पस्तक है-केवल हाथ से लिखे हुए सुन्दर शारत्र हैं, मामूली बिछाने का कपड़ा और प्रत्यन्त सामान्य प्रकार के वस्त्र और स्वाभाविकनया मग्न - वस्त्रिका और रजोहरण-यही उनका सब कुछ है। एक कुशल मनोवैज्ञानिक है। वे जानते है कि जो व्यक्ति इस प्रकार से अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर कालेबाजार करते हैं, उनके पास मे बड़े न्याग की प्राशा नहीं रखी जा सकती। उनमें से किसी को भी गंसार को त्याग करने का उपदेश नहीं दिया जा सकता। किन्तु उनके पास से कम-से-कम यह पाया तो की जा सकती है कि वे सच्चे अर्थ में मानव वनें, इसलिए उन्होंने अणुव्रत-अान्दोलन का प्रवर्तन किया है। यह प्रान्दोलन छोटे-छोटे व्रतों का आन्दोलन है। उनके अनुयायियों को इस प्रकार के व्रत दिलाये जाते हैं कि मैं अप्रमाणिकता नहीं करूंगा। मैं अनैतिकता और आडम्बर को छोड़ दंगा। मैं अन्य स्त्रियों पर बुरी दृष्टि नहीं डालूंगा। कुल मिलाकर ४६ त अहिमा, सत्य, अवौर्य, ब्रह्मचर्य, और अपरिग्रह इन पांच विभागों में विभक्त है। इनमें मे प्रायः सभी का स्वाभाविक हैं, और प्रायः सभी धर्मों के मूल-भूत सिद्धान्त है। उनमे से थोटे व्रत मे है जो कि केवल भारतीय संस्कृति से जुड़े हुए हैं, जैसे कि मैं मद्यपान नहीं करूंगा, दो सौ व्यक्तियों में अधिक बृहत् भोज नहीं करूंगा। ये नियम बहुत ही कम यूरोपवामियों द्वारा ग्राह्य हो सकते हैं। किन्तु एक औसत भारतीय विवाह के प्रसंग में उक्त मंख्या का उल्लंघन मामान्यतया करता है, तथापि प्राचार्य श्री के इस आह्वान से उनके अनुयायियों में एक नई चेतना आई है। मैं अपने एक मित्र के घर ठहरा था। वह एक बहुत ही अच्छे स्वभाव का और मोटा आदमी था। उसने देरी के व्यापार से धनार्जन किया था। एक बार सायंकाल मैं उसकी चूध की दुकान पर उसके साथ गया। उसने उत्साह से बताया कि अब मैं पहले की तरह अधिक धन नहीं कमाता है क्योंकि मैं अणुव्रती है। इसलिए दूध के व्यापार में कमाई
SR No.010719
Book TitleAacharya Shri Tulsi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Dhaval Samaroh Samiti
PublisherAcharya Tulsi Dhaval Samaroh Samiti
Publication Year
Total Pages303
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, Literature, M000, & M015
File Size15 MB
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