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अध्याय ]
संत भी, मेता भी
यहां, जिनका खानपान शुख है, अपने संतों को भिक्षा लेने को भी माशा दे दी। इस पर भी उनका विरोध हमा और जब ऐसी बातों में उनका विरोध होता है तो मुझे गांधीजी की याद पाती है। महात्मा गांधी भी जीवन-दर्यन्त समाज को उठाने का प्रयत्न करते रहे और उनके विरोधी उन्हें बुरा-भला कहते रहे। प्राज जो लोग सच्चा धर्म नहीं चाहते, जो लकीर के फकीर बने रहना चाहते हैं, जो यह चाहते हैं कि साधु-संत उन्हें पिछली कयाएं सुनाते चले जायें और भविष्य के बारे में कुछ न कहें, क्रान्ति की बात न करें, ऐसे लोगों में प्राचार्यश्री के प्रति श्रद्धा और प्रविश्वास होना प्राकृतिक ही है। परन्तु प्राचार्यश्री जिस मार्ग पर चल रहे हैं या जिस पर पलना चाहते हैं, उससे उन्हें कोई विचलित नहीं कर सकता।
कुशल बक्ता
कुशल वक्तत्व का भी प्राचार्यश्री में एक विशिष्ट गुण है । एक तो उनकी प्रावाज ही बहुत ऊँची है, मधुर भी है और वह यह देख लेते हैं कि जिस जनता में मैं बोल रहा हूँ, वह कितना ग्रहण कर सकती है। बाज़ ऊँचे व्यक्तियों में यह दोष होता है कि वे कभी-कभी बिल्कुल बे-पढ़े-लिखे लोगों में दर्शन शास्त्रों का वर्णन करने लगते हैं। प्राचार्यश्री को इतना अनुभव हो गया है कि वह जिस जनता में बात करते हैं, ऐसी बात कहते हैं कि उसके हृदय में उतर जाये । यह बात और है कि वह जनता कहाँ तक उस उद्देश्य को क्रिया-रूप में परिणत कर सकती है।
हजारों मील पैदल चल कर लाखों मनुष्यों मे सम्पर्क रखते हुए प्राचार्यश्री तुलसी को कब सोचने का और लिखने का समय मिलता है, यह भी पाश्चर्य की बात है । सब-कुछ करते हुए भी वे मनन भी करते रहते हैं और लिखते भी रहते हैं। गद्य में भी लिखते हैं और पद्य में भी वे लिखते हैं। दोनों में मधुरता है, दोनों में सरसता है, दोनों में गम्भोरता है
और दोनों में एक ऊंचे दर्जे का उद्देश्य है। ऊँचे विचार कार्य-बुद्धि में विघ्न नहीं
प्राचार्यश्री तुलसी उस गुण के भी धनी हैं, जो महात्मा गांधी में था। ऊँची-ऊँची बातों का विचार करते हुए भी छोटी बातें उनकी आँखों से ओझल नहीं होती और वे कुशलतापूर्वक छोटे-छोटे मसलों को भी निपटाते रहते हैं। किस संत को कहाँ जाना है, किस गृहस्थी से बात करनी है, कार्यक्रम कैसे बनाना है, सभा में किस-किस का वर्णन करना है, किसको कहाँ बैठना है, कौन किस प्रकार बैठा है, कौन मुन रहा है, कौन बात कर रहा है, यह सब उनकी नजर में रहता है। उनके उच्च विचार, उनकी कार्य-बुद्धि में विघ्न नहीं डालते। मैंने अधिवेशनों में उनका यह गुण विशेष रूप से देखा है। छोटे-से-छोटा मनुष्य हो या देश का सबसे बडा व्यक्ति, या बाहर के देश से आया हुआ कोई विद्वान् या उच्च पदाधिकारी, उनमे मिल कर सबको सन्तोष होता है। हरिजन उनके कमरे में पाते झिझकते थे, परन्तु उनके हौसला दिलाने मे उन्हें चरण-स्पर्श का सौभाग्य प्राप्त हमा।
अणुव्रत-पान्दोलन की गति से प्राचार्यश्री तुलसी को नहीं जाँचना चाहिए। उसकी प्रगति यदि मन्द है तो उसके लिए हम जैमे अकर्मण्य लोग जिम्मेदार हैं।
पूरा सत्गुरु क्या करे, जो सिखा में चक।
मन्मा लोक न लेते रह्यो, कहै कबीरा कूक ॥ माज जबकि प्राचार्यश्री तुलसी का धवल-समारोह मनाया जा रहा है, मैं नम्रतापूर्वक उनके चरणों में अपनी श्रद्धांजलि प्रस्तुत करता हूँ।