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अध्याय ]
भारतीय संस्कृति के संरक्षक
कानून अथवा सामाजिक अप्रतिष्ठा के भय के अलावा और किमी बात से प्रेरणा नहीं मिलती, आज की दुनिया में अधिक सफल होता है।
प्रत्येक व्यक्ति में श्रेष्ठता और महानता का स्वाभाविक गुण होता है चाहे वह समाज के किसी भी वर्ग में सम्बन्धित क्यों न हो । यदि हम प्रत्येक व्यक्ति में प्रात्म-सम्मान की भावना उत्पन्न कर सकें और उसे अपने इन स्वाभाविक गुणों का ज्ञान करा सकें, तो चमत्कारी परिणाम पा सकते हैं। यदि आत्म-ज्ञान व आत्म-निष्ठा हो तो व्यक्ति के लिए सत्पथ पर चलना अधिक सरल होता है। ऐमी स्थिति में तब वह मदाचार का मार्ग निषेधक न रह कर विधायक बास्तविकता का रूप ले लेता है।
प्रतिज्ञा-ग्रहण का परिणाम
अणुव्रत प्रान्दोलन अहिसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के सुविदित सिद्धान्तों पर आधारित है, किन्तु बह उनमें नई सुगन्ध भरता है। कुछ लोग प्रतिज्ञाओं और उपदेशों को केवल दिखावा और बेकार की चीजें समझते हैं, किन्तु असल में उनमें प्रेरक गस्ति भरी हुई है। उनमे निःस्वार्थ सेवा की ज्योति प्रकट होती है जो मानव-मन में रहे पशबल को जला देती है और उमकी राख से नया मानव जन्म लेता है, अमर और देवी प्राणी।
कुछ लोग यह नर्क कर सकते हैं कि ये तो युगों पुराने मौलिक सिद्धान्त हैं और यदि प्राचार्यश्री तुलमी उनके कल्याणकारी परिणामों का प्रचार करते हैं तो इसमें कोई नवीनता नहीं है। यह तर्क ठीक नहीं है । यह साहसपूर्वक कहना होगा कि आचार्यश्री तुलमी ने अपने शक्तिशाली दृढ़ व्यक्तित्व द्वारा उनमें नया तेज उत्पन्न किया है।
आचार्यश्री तुलसी अणुव्रत-आन्दोलन को अपने करीब ७०० निःस्वार्थ साधु-साध्वियों के दल की सहायता से चला रहे हैं। उन्होने प्राचार्यश्री के कड़े अनुशासन में रह कर और कटोर संयम का जीवन बिता कर पान्म-जय प्राप्त की है। उन्होंने आधुनिक ज्ञान-विज्ञान का भी अच्छा अध्ययन किया है। इसके अतिरिक्त ये साधु-साध्वी दृढ संकल्पवान् हैं
और उन्होंने अपने भीतर महिष्णता और महनशीलता की अत्यधिक भावना का विकास किया है, जिसका हमें भगवान् बुद्ध के प्रमिदगियों में दर्शन होता है।
आध्यात्मिक अभियान
यह आध्यात्मिक कार्यकर्ताओं का दल जब गाँवों और नगरों में निकलता है तो पाश्चर्यजनक उत्माह उत्पन्न हो जाता है और नैतिक गुणों की मच्चाई पर श्रद्धा हो पाती है। जब हम नंगे पांव साधुनों के दल को अपना स्वल्प मामान अपने कंधों पर लिए देश के भीतर गजरते हुए देखते हैं तो यह केवल रोमाचक अनभव ही नहीं होता, बल्कि बग्तत: एक परिणामदायी आध्यात्मिक अभियान प्रतीत होता है।
साधु-साध्वियाँ श्वेत वस्त्र धारण करते हैं। वे किसी वाहन का उपयोग नहीं करते। उनका वाहन तो उनके अपने दो पाँव होते हैं । वे माधारणत: किसी की महायता नहीं लेते, उनका कोई निश्चित निवास-गृह नहीं होता और न उनके पास एक पैसा ही होता है। जैसा कि प्राचीन भारत के साधु सन्तों की परम्परा है, वे भिक्षा भी मांग कर लेते है। भ्रमर की तरह वे इतना ही ग्रहण करते हैं, जिमसे दाना पर भार न पड़े।
प्राचार्यश्री तुलमी का ध्येय केवल लोगों को अपने जीवन का सच्चा लक्ष्य प्राप्त करने में सहयोग देने का एक निःस्वार्थ प्रयास है। पूर्णता प्राप्त करने का लक्ष्य इसी धरती पर मिद्ध किया जा सकता है। किन्तु उनके लिए हमको छोटी-छोटी बातों से प्रारम्भ करना चाहिए। एक-एक बूंद करके ही तो अगाध असीम समुद्र बनता है। पहले एक प्रतिज्ञा, फिर दूसरी प्रतिज्ञा, इमी प्रकार नैतिक पुनरुत्थान की क्रिया प्रारम्भ होती है। वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक जीवन-विधि
पाचार्यश्री की जीवन-विधि वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक दोनों ही प्रकार की है। नैतिक उत्थान का सन्देश सभी