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आचार्यश्री तुलसी और अणुव्रत-आन्दोलन
सेठ गोविन्ददास, एम० पी०
मानव, पूर्ण पुरुष परमात्मा की, एक अपूर्ण कृति है; और मानव ही क्यों, यह सारी मृष्टि ही, जिसका वह नायक बना है, अपूर्ण ही है । जब मानव अपूर्ण है, उसकी सृष्टि अपूर्ण है, तो निश्चय ही उसके कार्य-व्यापार भी अपूर्ण ही रहेंगे। मेरी दृष्टि में मनुष्य का अस्तित्व इस जगती पर उस सूर्य की भाँति है जो अन्तरिक्ष से अपनी प्रकाश-किरणे भूमण्डल पर फेंक एक निश्चित समय बाद उन्हें फिर अपने में समेट लेता है । इस बीच सूर्य-किरणों का यह प्रकाश जगती को न केवल पालोकित करता है, वरन उसमें नित-नतन जीवन भरता है और समभाव में सदा सवको प्राण-शक्ति से प्लावित रखता है। यहाँ सूर्य को हम एक पूर्ण तत्त्व मान कर उसकी अनन्त किरणों को उसके छोटे-छोटे अनन्त अपूर्ण अणु-रूपों की संज्ञा दे सकते हैं । यही स्थिति पुरुष और परमेश्वर की है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा भी है, ईश्वर अंश जीव अविनाशी-अर्थात् मानव-रचना ईश्वर के अणरूपों का ही प्रतिरूप है, जो समय के साथ अपने मूल रूप से पृथक् और उसमें प्रविष्ट होता रहता है। सूर्य-किरणों की भाँति उसका अस्तित्व भी क्षणिक होता है; पर समय को यह म्वल्पता, आयु की यह अल्पज्ञता होते हुए भी मानव की शक्ति, उसकी सामर्थ्य समय की सहचरी न होकर एक अतुल, अट और अबण्ड शक्ति का ऐसा स्रोत होती है, जिसकी तलना में याज सहस्राशु की वे किरण भी पीछे पड़ जाती हैं जो जगती की जीवनदायिनी है। उदाहरण के लिए, अंग्रेजी की यह उक्नि 'Where the sun cannot rises the doctor does inter there.' फितनी यथार्थ है ! फिर पाज के वैज्ञानिक युग में मानव की अन्तरिक्ष-यात्राएं और ऐसे ही अनेकानेक चामत्कारिक अन्वेषण, जो किसी ममय सर्वथा अकल्पनीय और अलौकिक थे, आज हमारे मन में आश्चर्य का भाव भी जागृत नहीं करते । इस प्रकार की शक्ति और सामर्थ्य से भरा यह अपूर्ण मानव, आज अपने पुरुषार्थ के बल पर, प्रकृति के साथ प्रतिस्पर्धी बना खड़ा है।
जगती में सनातन काल में प्रधान रूप में सदा ही दो बातों का द्वन्द्व चलता रहा है। मूर्य जब अपनी किरण समेटता है तो अवनि पर सघन अन्धकार छा जाता है । अर्थात् प्रकाश का स्थान अन्धकार और फिर अन्धकार का स्थान प्रकाश ले लेता है। यह क्रम अनन्त काल से अनवरत चलता रहता है। इसी प्रकार मानव के अन्दर भी यह द्वैत का द्वन्द्व गतिशील होता है । इसे हम अच्छे और बुरे, गुण और दोष, ज्ञान और प्रज्ञान तथा प्रकाश और अन्धकार प्रादि अगणित नामों से पुकारते हैं। इन्हीं गुण-दोषों के अनन्त-अगणित भेद और उपभेद होते हैं जिनके माध्यम से मानव, जीवन में उन्नति और अवनति के मार्ग में अनम्यास से अनायाम ही अग्रसर होता है । यहाँ हम मानव-जीवन के इसी अच्छे और बुरे, उचित और अनुचित पक्ष पर विचार करेंगे। जीवन की सिद्धि और पुनर्जन्म की शुद्धि
भारत धर्म प्रधान देश है, पर व्यावहारिक सचाई में बहुत पीछे होता जा रहा है। भारतीय लोग धर्म और दर्शन की तो बड़ी चर्चा करते हैं, यहाँ तक उनके दैनिक जीवन के कृत्य, वाणिज्य-व्यवसाय, यात्राएं, वैवाहिक सम्बन्ध प्रादि जैसे कार्य भी दान-पुण्य, पूजा-पाठ आदि धार्मिक वृत्तियों से ही प्रारम्भ होते हैं। किन्तु कार्यों के प्रारम्भ और अन्त को घोड़ जीवन की जो एक लम्बी मंजिल है, उसमें व्यक्ति, धर्म के इस व्यावहारिक पक्ष से सदा ही उदासीन रहता है। इस धर्म-प्रधान देश के मानव में व्यावहारिक सचाई में प्रामाणिकता के स्थान पर पाडम्बर मोर माधिभौतिक शक्तियों का