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अन्याय ] पाचार्यश्री तुलसी का जीवन-दर्शन
[ २३ मासान काम नहीं हैं।"
मोहनलालजी की पाँखमाचार्यश्री तुलसी पर एकाग्र थीं। जन-समुदाय ज्यों-का-स्यों निःशब्द था। तुलसीजीको यह कसौटी थी। उन्हें लगा कि यहाँ उपस्थित हर एक उनसे प्रश्न कर रहा है, ऐसी हालत में उन्हें क्या करना चाहिए? उन्होंने प्रभीष्ट निर्णय किया कि मुझे गलती नहीं करनी चाहिए, अपनी प्रात्मा की दृढ़ता दिखाने का यही अवसर है और स्पष्ट वाणी में प्राचार्यश्री से कहा-"पादरणीय प्राचार्यश्री, पाप प्रतिज्ञा दिलाने को राजी हों या नहीं, मैं तो प्रापकी उपस्थिति में यह प्रतिज्ञा ले ही रहा हूँ।" इसके बाद उस छोटे बालक ने आजीवन विवाह और धनोपार्जन न करने की प्रतिज्ञा को गम्भीरता के साथ दोहराया।
जन-समुदाय में इससे एक बार फिर पाश्चर्य की लहर दौड़ गई। यहाँ तक कि कठोर अनुशासक मोहनलालजी भी अपने छोटे भाई के वीरतापूर्ण शब्दों से बहुत प्रभावित हुए। एक क्षण बाद मोहनलालजी अपनी जगह से उठे और प्राचार्यश्री को सम्बोधन करके बोले-'प्राचार्यश्री, मैं अपने भाई की इच्छा के प्रागे सिर झुकाता हूँ और प्रापसे अनुरोध करता हूँ कि पाप उसे तेरापंथ के साधुमों में दीक्षित कर लें।
इस बार आचार्यश्री सोच में नहीं पड़े, बल्कि तुरन्त सहमति दे दी। दीक्षा के लिए ऐसी शीघ्र अनुमति बहुन असाधारण बात थी, जैसा कि पहले कभी बिरल ही हुआ था। जन-समुदाय एक बार फिर भौंचक्का रह गया।
प्राचार्यश्री तुलसी के बाल्यकाल का यह विवरण मुनिश्री महेन्द्रकुमारजी 'द्वितीय' द्वारा लिखित प्राचार्यश्री तुलसी की जीवन-झांकी 'भारत की ज्योति' के प्राधार पर लिखा गया है। भारत की ज्योति के प्रति पूग न्याय करना हो तो इस संक्षिप्त निबन्ध की परिधि में बाहर जाना होगा। प्रात्म-संयम के लिए जो प्राध्यात्मिक जिज्ञासा का मार्ग ग्रहण करना चाहें, उनके लिए मैं प्रणवत-आन्दोलन का सदस्य बनने की हार्दिक प्रार्थना करूगा । अणुव्रत-पान्दोलन के दो उत्साही सदस्यों रमणीक चन्द और मुन्दरलाल झवेरी की कृपा से कुछ वर्ष पूर्व हमारे पहली बार भारत आने पर मुझे और मेरी पत्नी को प्राचार्यश्री तुलसी के चरणों में बैठने का सौभाग्य प्राप्त हुया था।
प्राचार्यश्री तुलसी से भेंट करने पर मेरी पत्नी ने कहा था-'आचार्यश्री आपकी अांखों में जो दिव्य ज्योनि में देख रही हैं, वैमी इससे पहले अपने जीवन में मैंने कभी नहीं देखी।' उनके चेहरे का निचला प्राधा हिस्सा यद्यपि तेरापथ की परम्परा के अनुसार धवल वस्त्र से ढका हुआ था, फिर भी जैन प्राचार्यश्री तुलसी की सुन्दर चमकदार अखि हममें नहीं छिपी रह सकी और उनके द्वारा हम उनके हृदय की ऊष्मा, उनके व्यक्तिगत आकर्षण और उसमे भी अधिव, उनके मन व प्रात्मा की महान् शुद्धता को अनुभव कर सकते थे।
इस स्मरणीय पहली भेट में इस बात से हम बहुत प्रभावित हुए कि उनके आस-पास पलथी मार कर जमीन पर बैठे हाए मभी लोग हमें प्रमन्न दिखाई पडे । पश्चिमी दुनिया के सुविधावादी दृष्टिकोण से प्रभावित अनेक धामिक व्यक्तियों के विपरीत साधु-साध्वियों तथा आचार्यश्री तुलसी के दूसरे अनुयायियों ने स्पष्टतया प्राकृतिक जीवन के अपने आनन्द को नहीं खोया है। उनके हास्य और स्वेच्छापूर्ण उल्लास मे हमें लगा कि नैतिकता के मार्ग पर चलते हुए उनका समय बहुत अच्छा बीत रहा है। हमारी भंट के बीच प्राचार्यश्री तुलसी ने कई अच्छी बातें कहीं, जिनमें से यह मुझ विशेषतया याद है --'अपनी इच्छाओं पर आप विजय नहीं पायेंगे तो वे आप पर हावी हो जायेंगी।'
प्राचार्यश्री तुलसी और उनके अनुयायियों से विदा होने के पहले मैंने उनसे पूछा कि बीसवी सदी के ठूठे कान में जब प्रगति के नाम पर संहार और संहार की तैयारी जारी है, तब दुनिया में सच्चे सुख की प्राप्ति कैसे सम्भव है ? माचार्यश्री ने जो कुछ कहा उसका भावार्थ यह है कि शरीर एक अच्छा नौकर, पर बुरा मालिक है, अतः सचमुच मुखी होने के लिए मनुष्य को अहिंसा की आवाज पर चलना चाहिए यानी किसी को चोट नहीं पहुंचानी चाहिए।
तेरापंथ के नव प्राचार्य से अपनी और अपनी पत्नी की पहली मुलाकात के बाद से ही सुख के सम्बन्ध में मैं एक नई दृष्टि से विचार करने लगा हूँ और वासनाओं की भूख पर बहुत कुछ विचार करने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि सुख की कुंजी, जैसा कि प्राचार्यश्री तुलसी कहते हैं, प्रात्म-संयम में ही है। भौतिक शरीर तरह-तरह की अटी माकांक्षाओं में प्रानन्दानुभव करता है और अगर हम उनके संगुल में पड़ जाये तो अन्त में हमेशा निराशा ही हाथ