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अचार्यश्री तुलसी का जीवन-दर्शन
श्री० वुडलण्ड कहेलर
मध्यम, अन्तर्राष्ट्रीय शाकाहारी संघ, लन्धन अन्तर्राष्ट्रीय-सम्बन्ध इस समय समस्त संसार की एक प्रमुख समस्या है। दो विश्व युद्धों के बाद पुराने ढंग के संकीर्ण राष्ट्रीयतावादी भी यह अनुभव करने लगे हैं कि विश्व-व्यापी रूप में, यानी समग्र विश्व की दृष्टि से नई सीमाएं निर्धारित करनी मावश्यक हैं । इस कार्य में सहायता के लिए भारतवर्ष के जैनाचार्य श्री तुलसी अपने अनुयायियों को दुनिया में हर चीज पर परस्परावलम्बी प्रहिसक दृष्टि से विचार करने की प्रेरणा करते हैं । विश्वव्यापी मंत्री के कान व्यक्तिगत पात्म-संयम के बीज से ही उत्पन्न होते है, इस बात को मुख्य मानते हुए प्राचार्यश्री तुलसी और उनके सर्वथा माकाहारी अनुयायियों ने अणुव्रत-अान्दोलन मंगठित किया है। यह एक ऐसे अन्तर्राष्ट्रीय समाज के निर्माण का प्रयत्न है, जिसमे जैन और अजैन सभी ऐसे लोग शामिल हो सकते है, जो प्रादर्गों को अमली रूप देने के लिए निश्चित की गई कुछ धनुशासनात्मक प्रतिज्ञायों को अपनी क्षमता के अनुसार स्वेच्छापूर्वक ग्रहण करने के लिए तैयार हो।
प्राचार्यश्री तुलसी २० अक्तूबर, १९१४ को लाडनूं मे पैदा हुए थे, जो भारतीय संघ के राजस्थान राज्यान्तर्गन जोधपुर डिवीजन का एक करबा है । प्राचार्यश्री तुलसी तीन वर्ष के ही थे कि उनके पिता का देहान्त हो गया। पिता के दहावसान के बाद प्राचार्यश्री तुलसी के सबसे बड़े भाई मोहनलालजी पर गृहस्थी का भार प्राया। मोहनलालजी अवश्य कहे अनुशासन वाले व्यक्ति रहे होगे, क्योंकि अपनी डायरी में प्राचार्यश्री तुलसी ने लिखा है-"मैं उनमें इनना डरता था कि उनके विरुद्ध कुछ कहना तो दूर, उनकी उपस्थिति में कुछ करने में भी मुझं संकोच होता था।"
प्राचार्यश्री तुलसी पर अपनी माता का भी बहुत असर पड़ा, जो आध्यात्मिक विचारो की थी और बाद में माध्वी बन गई। तेरापंथी साधु-माध्वियो के वातावरण में शाकाहारी तो वह जन्म से ही थे। बाल्यावस्था में ही अपने मानसिक धरातल को दृढ़ करने के लिए उन्होंने जीवन में कभी नगा और धम्रपान न करने की प्रतिज्ञा ली। इस तरह व्यक्तिगत प्रात्म-संयम का सहारा लेकर उन्होने छोटी अवस्था मे ही उस मार्ग को अपनाया जो कठिन होते हा भी दुनिया मे सुखी रहने का सबसे प्रशस्त मार्ग माना जाता है।
बाल्यावस्था के अपने संस्मरणों में प्राचार्यश्री तलमी लिखते है.--"पाठ काण्ठाग्र करने की मुझ पात थी। यहाँ तक कि खेलते समय भी मैं अपना पाठ याद करता रहता था।" प्रारम्भ से ही वे बाहरी प्रभाव के बनिस्पत अन्तरास्मा का अनुसरण करते थे और प्रारम्भिक काल के उनके सभी अध्यापकों ने उनमें नेतृत्व की क्षमता को अनुभव किया था। चार या पांच साल की अवस्था में, जबकि बच्चे प्रामतौर पर ऐसी पादतों का परिचय देते हैं जो उनके भावी जीवन की रूपरेखा बनाती हैं, आचार्यश्री तुलसी में जरा-जरा सी बात पर गुस्सा हो जाने की प्रादत पड़ गई। क्रोध के दुष्प्रभाव में मनुष्य का पेट खाए हुए पदार्थ को अच्छी तरह नहीं पचा सकता, लेकिन प्राचार्यश्री तुलसी बाल्यावस्था में ही इतने समझदार थे कि जब उन्हें गुस्सा माता तो खाना खाने से इन्कार कर देते थे । कभी-कभी तो ऐसा होता कि घर के सभी लोगों के बहुत कहने-सुनने पर भी सारे दिन या दो दिन तक वह खाना नहीं खाते। इसी समय किसी ने उन्हें नारियल चुरा कर भगवान् पर चढ़ाने की सलाह दी। इस सलाह पर, जिसका औचित्य निःसन्देह संदिग्ध है, चल कर कथित धार्मिक त्रिया के लिए उन्होंने अपने ही घर से कुछ नारियल चुराए । लेकिन सदानार के जिस मार्ग को उन्होंने अपनाया, उसमें बचपने के ऐसे अवधान बिरले ही हुए। आज्ञा-पालन और मृदुता उनके विशेष गुण बन गए, जिनके कारण अपनी इच्छा न होते