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प्राचार्यश्री तुलसी अभिनन्दन अन्य
[प्रथम
में अपनी प्रात्मा को खोकर सफल नहीं हो सकता। अनियन्त्रित स्पर्धा से धन प्राप्त हो जाये तो वह धन अबिनय और प्रकरणीय कर्म की ओर ले जाता है। परमाणु वम जैसी नर-संहारवादी वस्तनों का मार्ग दिखलाता है। मनुष्य माज अाकाशाराहण करने जा रहा है। बात तो बुरी नहीं है; पर इसका परिणाम क्या होगा! यदि वह राग-द्वेष का पुतला बना रहा, यदि लोभ ही उसको स्फूर्ति देने वाला रहा और धन-सम्पत्ति का संग्रह ही उसके जीवन का चरम लक्ष्य रहा तो बह दूसरे पिण्डों को भी पृथ्वी की भाँति रणस्थल और कसाईखाना बना देगा। यदि उन पिण्डों पर प्राणी हुए तो उनका जीवन भी दूभर हो जायेगा और वे मनुष्य जाति के क्षय को ही अपने लिए वरदान मानेगे । मनुष्य का ज्ञान-समुच्चय उसके लिए अभिशाप हो जायेगा और एक दिन उसे अपने ही हाथों सहस्रों वर्षों मे अजित संस्कृति और सभ्यता की पोथी पर हरताल फेरनी होगी। लोभ की प्राग सर्वग्राही होती है । व्यास ने कहा है
नाच्छित्वा परमर्माणि, नाकृत्वा कर्म दुष्करम् ।
नाहस्वा मत्स्यघातीव प्राप्नोति महतीं श्रियम् ॥ बिना दूसरों के मर्म का छेदन किये, विना दुष्कर कर्म किये, बिना मत्स्यपाती की भाँति हनन किये (जिस प्रकार धीबर अपने स्वार्थ के लिए निर्दयता से सैकड़ों मछलियों को मारता है) महती श्री प्राप्त नहीं हो सकती। लोम के वशीभूत होकर मनुष्य और मनुष्यों का समूह अन्धा हो जाता है। उसके लिए कोई काम, कोई पाप, प्रकरणीय नहीं रह जाता। लोभ और लोभजन्य मानस उस समय पतन को पराकाष्ठा को पहुँच जाता है, जब मनुष्य अपनी परपीड़न-प्रवृत्ति को परहितकारक प्रवृत्ति के रूप में देखने लगता है, किसी का शोषण-उत्पीड़न करते हुए यह समझनेलगता है कि मैं उमका उपकार कर रहा हूँ। बहुत दिनों की बात नहीं है, यूरोप वालों के साम्राज्य प्रायः सारे एशिया और अफ्रीका पर फैले हा थे। उन देशों के निवासियों का शोषण हो रहा था, उनकी मानवता कुचली जा रही थी, उनके प्रारम-सम्मान का हनन हो रहा था, परन्तु यूरोपियन कहता था कि हम तो कर्तव्य का पालन कर रहे हैं, हमारे कन्धों पर बाइट मैस बर्डन (गोरे मनुष्य का बोझ) है, हमने अपने ऊपर इन लोगों को ऊपर उठाने का दायित्व ले रखा है, धीरे-धीरे इनको सभ्य बना रहे है। सम्यता की कसौटी भी पृथक-पृथक होती है। कई साल हुए, मैंने एक कहानी पढ़ी थी। थी तो कहानी ही, पर रोचक भी थी और पश्चिमी सभ्यता पर कुछ प्रकाश डालती हई भी। एक फ्रेंच पादरी अफ्रीवा की किसी नर-मांस-भक्षी जंगली जातियों के बीच काम कर रहे थे। कुछ दिन बाद लौट कर फ्रांस गये और एक सार्वजनिक सभा में उन्होंने अपनी सफलता की चर्चा की। किसी ने पूछा, "क्या अब उन लोगों ने नर-मांस खाना छोड़ दिया है ?" उन्होंने कहा, "नहीं; अभी ऐसा तो नहीं हुआ, पर अब यों ही हाथ मे खाने के स्थान पर छरी-कांटे से खाने लगे हैं।" मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि उस समय पतन पराकाष्ठा पर पहुँच जाता है, जब मनुष्य की प्रात्मवञ्चना इस सीमा तक पहुंच जाती है कि पाप पुण्य बन जाता है। विवेक भ्रष्टानां भवति विनिपातः शतमुखः । एक लोभ पर्याप्त है, सभी दूसरे दोष प्रानुषंगिक बन कर उसके साथ चले पाते हैं । जहाँ भौतिक विभूति को मनुप्य के जीवन में सर्वोच्च स्थान मिलता है, वहां लोभ से बचना असम्भव है।
असत्य के कन्धे पर स्वतन्त्रता का बोझ
हम भारत में वेल्फेयर स्टेट-कल्याणकारी राज्य की स्थापना कर रहे हैं और 'कल्याण' शब्द की भौतिक व्याख्या कर रहे हैं । परिणाम हमारे सामने है । स्वतन्त्र होने के बाद चरित्र का उन्नयन होना चाहिए था, त्याग की वृत्ति बढ़नी चाहिए थी, परार्थ सेवन की भावना में अभिवृद्धि होनी चाहिए थी। सब लोगों में उत्साहपूर्वक लोवहित के लिए काम करने की प्रवृत्ति दीख पड़नी चाहिए थी। एड़ी-चोटी का पसीना एक करके राष्ट्र की हितवेदी पर सब-कुछ न्यौछावर करना था। परन्तु ऐमा हुमा नहीं। स्वार्थ का बोलबाला है। राष्ट्रीय चरित्र का घोर पतन हुमा है। कर्तव्यनिष्ठा ढंटे नहीं मिलती। व्यापारी, सरकारी कर्मचारी, अध्यापक, डाक्टर किसी में लोकसंग्रह की भावना नहीं है। सब रुपया बनाने की धुन में हैं, भले ही राष्ट्र का माहित हो जाए । कार्य से जी चुराना, अधिक-से-अधिक पंसा लेकर कम-से-कम काम करना-यह साधारण-सी बात हो गई है। हम करोड़ों रुपया व्यय कर रहे हैं, परन्तु उसके प्राधे का भी लाभ नहीं उठा