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अन्याय ] भोकालू पशोविलास
[ २७१ पांचवां उल्लास भी धर्माचार्य कालूजी को नमस्कार करके प्रारम्भ किया गया है । कार्तिक कृष्णा पंचमी के दिन महोत्सवपूर्वक पन्द्रह दीक्षाएं सम्पन्न हुई। इनमें तीन पुरुष और बारह स्त्रियां थीं। उदयपुर से विहार कर श्री कालूगणी मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष में राजनगर पहुँचे और साधु-साध्वियों के वार्षिक व्यतिकर के बारे में पूछकर उनके उत्साह की वृद्धि की । इसके बाद मालव संघ की अभ्यर्थना से गणीजी ने मालव देश में प्रवेश किया। सादड़ी, नीमच छावनी, महू छावनी, मन्दसौर आदि होते हुए भाप माघ कृष्णा चतुर्थी के दिन जावर पहुँचे । वहाँ सबके सामने अापने तेरापंथ के सिद्धान्तों का सयुक्तिक व्याख्यान किया। इससे बिना उत्तर और प्रत्युसर के लोगों का संशय दूर हुमा। वहाँ मे माघ शुक्ला सप्तमी के दिन पाप रतलाम पहुँचे । विद्वेषियों ने बहुसंख्यक लेख आपके विरुद्ध निकाले । प्रश्नकारियों का उचित समाधान कर गणेश्वर बड़नगर पहुंचे। यहाँ महान् मर्यादामहोत्सव सम्पन्न हुमा । माघ पूर्णिमा के दिन आपने उज्जैन के लिए विहार किया। फिर इन्दौर मादि नगरों में देशना देते हुए १२१ गाँवों का चक्कर लगाकर आप फिर रतलाम पहुँचे । वहाँ रतलाम के दीवान प्रादि आपके दर्शनार्थ आये । चार मास तक इस प्रकार आपने मालब भूमि को अपने उपदेशामृत का पान करवाया । वैशाख शुक्ला षष्ठी के दिन अापने मेवाड़ की ओर विहार किया । संवत् १९६३ का चातुर्मास गंगापुर के लिए निश्चित हुआ।
इसी समय गणीजी के वाएं हाथ की तर्जनी अंगुली में फुन्सी होकर पीड़ा हो गई। यह पीड़ा बढ़ती गई। प्रापरेशन करना आवश्यक हो गया। किन्तु इसी कार्य के लिए लाए हुए प्रौजारों को प्रयुक्त करना विधानानकल न था। अतः कलम बनाने के चाक से मगन मुनिजी ने डाक्टर के कथनानुसार चीरा दिया। गुरुजी भीलवाड़े पहुँचे। अनेक डाक्टर
और श्रद्धालु भी वहाँ आए। डाक्टर अश्विनीकुमार ने मधुमेह का निदानकर श्रणविरोपण के लिए एक औषधि विशेष का विधान किया। किन्तु जन व्रतव्रती कालूजी ने उसका मेवन स्वीकार न किया । न वे उस स्थान पर ठहरे । गंगापुर में चातुर्माम करना उन्होंने स्वीकृत किया था। इसलिए वहीं जाना उन्होंने निश्चित किया।
छठे उल्लाम का प्रारम्भ गुरुवन्दना से है । गुरु कष्टमय मार्ग को पार कर गंगापुर पहुंचे। संवत् १९६३ का चातुर्मास वहीं हुआ। वर्षाकाल में व्रण का और विस्तार हुआ और अस्वास्थ्य बढ़ने लगा। किन्तु इतना होने पर भी उपदेश का कार्य सततरूप से चलता रहा। ग्रन्थकर्ता तुलसीजी ने भी उनके आदेश मे श्रावण शुक्ला दशमी के दिन रामचरित का व्याख्यान प्रारम्भ किया। इसी समय प्राशु कविरत्न आयुर्वेदाचार्य पं० रघुनन्दनजी वहाँ आये। नाड़ी परीक्षा के बाद उन्होंने तीव्र प्रौषधों के प्रयोग से चिकित्सा आरम्भ की। फिर उन्होंने जयपुर निवासी दादूपंथी लक्ष्मीरामजी राजवंद्य को सम्भति के लिए इक्कीस श्लोकों में एक पत्र लिखा। इसका उत्तर लक्ष्मीरामजी ने छः श्लोकों में दिया। पौषध की अदल-बदल से कुछ लाभ हया। किन्तु फिर प्रौषध कार्यकर न होने लगी। डाक्टर अश्विनीकुमार भी कलकत्ते में पाये। उन्होंने और पं० रघुनन्दनजी ने भी रोग की असाध्यता का अनुभव किया। भाद्रपद की अमावस्या के दिन श्री कालूगणी ने तुलमीजी को भिक्षगण का भार सँभालने की आज्ञा दी। फिर गरुवर ने श्रमण वर्ग को अन्तिम शिक्षा दो। एकान्त में काव्यकार को भी बहुत तरह से उपदेश दिया। तृतीया के प्रातःकाल में गणेश्वर ने अपने हाथ से युवराज पद-पत्र में तुलसी राम को अपना पट्टाधिकारी लिखकर युवराज बनाया । इस पत्र की पूरी नकल ग्रन्थ में वर्तमान है। मगन मुनि ने यह लेख सबको सुनाया। देह-त्याग से पूर्व गणरक्षा के विषय में श्री कालगणी ने तुलसीजी को फिर शिक्षा दी। नाड़ी डगमगा रही थी तो भी गणाधिप ने यह सब व्यवस्था की।
सब प्रदेशों के लोग अब गंगापुर में आकर एकत्रित हो गए थे। सभी उनकी दृढ़ता देखकर चकित थे । तीज की रात्रि में सांवत्सरिक उपवास को धारण कर छठ की प्रातःकाल में प्रापने पारण किया। सायंकाल के समय भगवान् अरिहन्त की शरण ग्रहण कर मचेत अवस्था में श्री कालगणीजी ने शरीर-त्याग किया। अन्येष्टि के समय लगभग ३६ हजार व्यक्ति उपस्थित थे।
ढाल १६वीं और १७वों में फिर कालगणी का संक्षिप्त जीवनवृत और उनके समय की तपश्चर्यादि का वर्णन है।