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आचार्यश्री तुलसी अभिनन्दन ग्रन्थ
[ प्रथम
समझाया। जिसने भिक्षुक वेष धारण किया है उसे किसी के सुख और दुःख से कोई लगाव नहीं है। कहीं लड़ाई हो या भाग लगे - ये दोनों ही उसके लिए उपेक्षा के विषय हैं ।
उदयपुर में विपक्षियों ने तेरापंथ के विषय में अनेक अफवाहें फैलाई, किन्तु वास्तविक सत्य के सामने वे ठहर न सीं वहाँ से बिहार कर श्री कालूगणी ने एक यो धड़तीस गाँवों को अपनी वरण-रज से पवित्र किया। घाटवे में सूत्रकृतांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध छठे अध्ययन के निर्दिष्ट पाठ को पढ़ कर उन्होंने सिद्ध किया कि उसमें कहीं प्रतिमा का उल्लेख नहीं है।
सं० १९७३ में चातुर्मास जोधपुर में और १६७४ में सरदारशहर में हुआ। यहीं इटली के विद्वान् डा० सीटरी ने आपके दर्शन किये। अगला चातुर्मास चूरू में हुआ । यहीं श्रायुर्वेदाचार्य आशुकविरत्न पं० रघुनन्दन जी आपकी सेवा में घाये । रतनगढ़ में गणेश्वर ने पंडित हरिदेव के व्याकरण- ज्ञान का मद दूर किया। १९७६ में बीदासर में चातुर्मास हुआ। इसके बाद सरदार शहर, चूरू श्रादि शहरों में होते हुए आपने हरियाणे के अनेक नगरों और ग्रामों में बिहार किया। १९७७ के भिवानी के चातुर्मास में कार्तिक कृष्णाष्टमी के दिन कई दीक्षाओं का मुहूर्त निश्चित हुआ। विरोधियों ने दीक्षाओं के विरोध में सभा की, किन्तु दैववश उसी समय आकाश से एक गोला गिरा। लोगों में भगदड़ पड़ गई। दीक्षाएं नियत समय पर हुई । १६७८ का चातुर्मास रतनगढ़ में हुआ। दूसरे स्थानों की तरह यहाँ भी अनेक दीक्षाएं हुई। इसके बाद बीदासर, डूंगरगढ़, गंगाशहर यादि में इन्होंने संवत् १९७९ में बिहार किया। भीनासर में स्थानकवासी कनीरामजी बाँडियों से चर्चा हुई। फिर गोमासे के लिए बीकानेर पहुँचे।
तीसरे उल्लास का धारम्भ जिनेन्द्र की मुखभारती को प्रणाम कर हुआ है। बीकानेर में विरोधियों ने यत्र तत्र उनके विरुद्ध खूब पत्र बँटवाए और त्रिपकाए। फिर भी दीक्षामहोत्सव बड़े आनन्द से सम्पन्न हुआ । ज्येष्ठ मे जयपुर वाटी में आपने विहार किया। चातुर्मास जयपुर में हुआ और माघोत्सव सुजानगढ़ में । इक्यासी की साल में फिर चूरू में चातुर्मास हुआ। जब आप राजगढ़ पहुँचे तो अमेरिकन प्रोफेसर गिल्की ने आपके दर्शन किये और तेरापंथ के बारे में जानकारी प्राप्त की। माघ मास मे गुरुवर सरदारशहर पहुँचे ।
ariari में श्री कालूगणी लाडनूं पहुँचे और धन लग्न में काव्य-कर्ता तुलसी और उनकी बहन एक साथ दीक्षित हुए। इसके बाद के विहार में तुलसी सदा गुरु मेवा में रहे। इन्हीं दिनों थली देश में एक महान् द्वंद्व मच गया। गुरुवर ने एक मास तक लगातार प्रयास किया। जिससे श्राद्ध समाज में अच्छी जागृति हुई । माघ महोत्सव चूरू में हुआ । स्थानक वासी साधु-साध्वी मंभोग सम्वन्धी शास्त्रार्थ में परास्त हुए। इस चर्चा में भगवानदास मध्यस्थ ये चूरू से श्रीकालुगणी रतनगढ़ और राजलदेसर पहुँचे। श्रगला चातुर्मास छापर में हुआ। १६८६ का चातुर्माम सरदारशहर में हुआ ।
चतुर्थ उल्लास का प्रारम्भ मूलमूत्र श्री कानूगणी के नमस्कार से है। १६६० में सुजानगढ़ में चातुर्मास करने के बाद प्राचार्यजी ने जोधपुर राज्य में बिहार किया। छापर, बोदासर नाडनूं सुजानगढ़, डीडवाना, खाटू, टेगाणा, बलून्दा पीपाड़, पचपदरादि होते हुए अपने वैदुष्य और संयमपूर्ण साधु परिवार के साथ गणिवर आगे बढ़े और टनोकरों द्वारा विस्तारित मिथ्या प्रचार का उद्भेदन कर जोधपुर पहुँचे । १६६९ का चातुर्मास वहीं हुआ। चारों ओर से लोग दर्शनार्थ एकत्रित हुए। बाईस दीक्षाओं का निश्चय हुआ। इनके विरुद्ध प्रतिपक्षियों ने खूब धान्दोलन किया। गणीजी ने जैन सिद्धान्त के अनुसार ऐसी दीक्षाओं का समर्थन किया और लोगों को बताया कि श्राठ वर्ष से अधिक बालक-बालिकाओं की दीक्षा सर्वया निहित है। स्मृतियों में भी ऐसी दीक्षायों का विधान है। नव वार्षिक वालक कच्चे भाण्ड की तरह है जिसे उचित रूप से संस्कृत किया जा सकता है। वह काली कम्बल नहीं है जिसे रंगा न जा सके। बड़ी श्रायु में दीक्षित होने पर मार्गभ्रष्ट होने की सम्भावना अत्यधिक है महावीर स्वामी से दीक्षित होने पर भी उनका जामाता जमानी मार्गभ्रष्ट हो गया। लोग इन युक्तियों से प्रभावित हुए बिना न रह सके। कार्तिक कृष्णा भ्रष्टमी के दिन ये बाईस दीक्षाएं सोत्सव सम्पन्न हुईं। फिर काण्ठा देश के सुधरीपुर में मर्यादोत्सव पूर्ण कर और दुरारोह मेवाड़ की पर्वतमाला को पार कर सब भिक्षुगण सहित श्री कालूगणी संवत् १९९९ के चातुर्मास के लिए उदयपुर पहुँचे। महाराणा भूपालसिंह अपने लवाजमे सहित प्राषाढ़ शुक्ला चतुर्थी के दिन प्रापके दर्शनाथ आये और आपका उपदेश सुन कर कृतार्थ हुए।