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अन्याय 1 अग्नि-परीक्षा : एक अध्ययन
[ २६३ अरुण नेत्र निष्करण हवय, त्यों निष्प्रकम्प निःस्नेह, थर-थर अपर क्शन से उसते, शस्त्र-सुसज्जित देह, सोच रहे जन अरे ! हो गया है किसका विधु वाम ! भकुटि चढ़ी है, बड़ी व्यग्रता, फड़क रहे भुज-दण्ड, कड़क रहे बिजली ज्यों रिपु को कर देंगे शत-खण्ड,
है प्रचण्ड कोदण्ड हाथ में मूर्त रूप ज्यों स्थाम। परन्तु रोषारुण होने से ही युद्ध नहीं होता। राम-लक्ष्मण भले ही लवणांकश को नहीं पहचानते हों, पर रक्त तो रक्त को पहचानता था। उनके अस्त्र हो जैसे आज उनको छल रहे थे, वे फैके किधर ही जाते थे और जाकर लगते किधर ही थे। रथ जर्जर हो गए, अश्व ग्राहत हो गए, सेना शिथिल हो गई। नारदजी फिर रहस्योद्घाटन करने पहुंच जाते हैं । लवणांकुश का परिचय पाकर राम-लक्ष्मण अस्त्रों को छोड़ कर और रथ से उतर कर उनसे मिलने के लिए दौड़ पड़ते हैं :
पुत्र पिता से, पिता पुत्र से, परम मुक्ति मन मिलते हैं। शशि को देख सिन्धु, रवि-दर्शन से पंकज ज्यों खिलते हैं। विनय और वात्सल्य बरसता है भीगी पलकों के द्वारा।
स्नेह-सुधा से सिञ्चित कण-कण माज अयोध्या का सारा। युद्ध के आँगन में जहाँ पहले तलवारों में तलवार मिल रही थीं, वहाँ बाह मे बाह और वक्ष से वक्ष मिलते हैं। प्राचार्यश्री तुलसी ने इस आकस्मिक भाव-परिवर्तन का बड़ा हृदयग्राही वर्णन किया है :
पल भर में ही वीर रौद्र रस बदल गया हर्षोत्सव में, शीघ्र उप प्रतिशोष-भावना परिवर्तित प्रेमोभव में। क्षण भर पहले जो लड़ते थे वे मापस में गले मिले,
पलट गया पासा ही सारा, फूल और के और खिले। युद्ध-प्रकरण के पश्चात् सीता की अग्नि-परीक्षा का प्रसंग उपस्थित होता है । कपिपति मुग्रीव पण्डरीकपुर में मीता की सेवा में उपस्थित होते हैं और उनका अभिनन्दन करते हुए कहते हैं :
कुल कमले! कमनीय कले! प्रमले ! प्रचले ! सन्नारी,
सहज सुबते । सौम्य सुशीले! पननुमेय अविकारी। सुग्रीव के द्वारा राम की अोर में आमन्त्रण की बात सुनकर सीता का दवा हुआ विक्षोभ फट पड़ता है। गोता के भावोद्गारों में नारी की वेदना ही नहीं, उमका विद्रोह भी मुरित हो उठा है :
कपिपति ! मैं भूलो नहीं वह भीषण कान्तार,
नहीं और अब चाहिए स्वामी का सत्कार । मीता कहती है-"राम की धरोहर लवणांकुश-मै उन्हें सौंप चुकी हैं। राम इम कुलटा को अयोध्या जैसी पुण्य नगरी में बुलाकर उस नगरी को कलंकित क्यों करना चाहते हैं ? हाँ, अगर वे मेरी परीक्षा लेकर मेरा कलंक उतारना चाहें, तो मैं सहर्ष अयोध्या जाने के लिए प्रस्तुत है।" राम सीता के दृढ सतीत्व के प्रति अपने मन में अप्रतिहत आस्था होते हुए भी जड़ जनता को शिक्षा देने के लिए सोता की अग्नि-परीक्षा करने को प्रस्तुत हो जाने हैं। महेन्द्रोद्यान के निभत क्षणों में जब राम सीता के सामने अपनी सफाई का बयान देने लगते है तो उन्हें सीता दो टूक जवाब देती है :
जीवन भर में साम रही, फिर भी पाये पहिचान नहीं, कहलाते हो अन्तर्यामी, किस भ्रम में भूले होस्वामी!