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विद्वान् सर्वत्र पूज्यते
श्री ए. बी. प्राचार्य मंत्री, पूना कन्नड़ संघ
माज के स्यूतनिक युग में मनुष्य ने निसर्ग पर अपने प्रखण्ड परिश्रम द्वारा विजय प्राप्त कर ली है। मनुष्य प्रगतिशील तो है ही, लेकिन वह आज निराशा और भय के अन्धकार में पूरा फंस गया है । उन्नति का मार्ग टटोलते हुए वह अधोगति के गढ़े में क्यों गिर रहा है ? इसका कारण है-उसकी राक्षसी महत्त्वाकांक्षा । वह चाहता है कि वह इतना बलवान् बन जाये कि दुनिया की सारी शक्ति का निर्मूलन वह अकेला कर सके। लेकिन वह भूल जाता है कि इस संसार में एक से दूसरा अधिक बनने का प्रयत्न हमेशा ही करता रहता है और परिणाम निकलता है-सब का ही सर्वनाश ।
आज मनुष्य मनुष्य का विरोधी बनने में व्यस्त हो रहा है। जाति, धर्म, भाषा, पंथ, रंग, राज्य, प्रान्त, देश आदि जो केवल भौगोलिक और व्यावसायिक उपयुक्तता पर निर्भर रहे हैं, वे ही प्राज एक-दूसरे को शत्रुत्व पैदा करने के साधन बन कर नानाशाही को निमंत्रण दे रहे हैं । इस अराजक स्थिति में (Chos) मनुष्य जाति, मंत्री का विकास करने में कभी सफलता नहीं पायेगी, अपितु नष्ट जरूर हो जायेगी।
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारतः। भगवान् श्रीकृष्ण ने उपर्युक्त शब्दावली में यही बताया है कि जब भारत में ऐसी ग्लानि, ऐसा घनघोर अंधकार, ऐसी जटिल समस्या पैदा हो जायेगी, तब उस ग्लानि को हटाने के लिए, उस अंधकारमय जीवन को उजाला देने के लिए और उस जटिल समस्या को हल करने के लिए इस महान् देश में कोई-न-कोई श्रेष्ठ विभूति जरूर पैदा हो जायेगी और वह महान विभूति है-प्राचार्यश्री तुलसी।
मनुष्य जाति का विकास और उन्नति उसके सत्-चरित्र, उसकी एकता प्रादि पर निर्भर है। इन महान तत्त्वों की उपासना के लिए प्राचार्यश्री ने जन्म लिया है। प्राचार्यश्री जो उपदेश देते हैं, वह होता है अणुव्रतों का और पदयात्रा करके इस देश के कोने-कोने में सर्दी और गर्मी से संघर्ष करते हुए पालन करते हैं-महाव्रतों का। मराठी भाषा में एक मुहावरा है जिसके शब्द हैं :
कियेवीण बाचालता व्यर्थ माहे। स्वतः बिना कुछ किये दूसरों को कोरा उपदेश करना विफल है। आचरणहीन उपदेश वास्तव में प्रात्मवंचना है।
श्रम प्राचार्यश्री के जीवन का क्रम है । भाग्यवाद का समर्थन करने वालों की प्रकर्मण्यता पर प्राचार्यश्री हँसते है और प्रत्यन्त कठोर कष्ट उठाने वालों को प्राशा भरी दृष्टि से देखते हैं। उनकी दृष्टि से पुरुष का काम है सतत सदुद्योग।
कोटि-कोटि जनता को ज्ञानामृत देने के लिए जो वाणी का वैभव होना चाहिए, वह मापकी वाणी में है। इसलिए आप विद्वत-सभा में तथा साधारण जनता में अपना प्रभाव डालने में सदा सफल हुए हैं । राजा की महानता होती है उसके राज्य में, परन्तु विद्वान् की सारे विश्व में । इसीलिए कहा गया है-स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते।