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कर्मण्येवाधिकारस्ते
रायसाहब गिरधारीलाल
श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने मानव को निष्काम कर्म करने का प्रादेश दिया है। फल की इच्छा कर्म को पंगु बना देती है । भौतिक सुखों की लालसा मनुष्य को मृगतृष्णा के अन्धकूप में ढकेल देती है। विधि की कैसी विडम्बना है कि पाज का वैज्ञानिक ग्रह-नक्षत्रों की थाह लेने के लिए तो उतावला हो रहा है, परन्तु जिस जन्म भू की रज में लोट-लोटकर बड़ा हुआ है, जिसकी गोद में घुटनों के बल रेंग-रेंग कर उसने खड़ा होना सीखा है, उसके प्रति उसका कर्तव्य क्या है और कितना है। इस पर सम्भवतः वह शान्त चित्त से सोचने का प्रयास ही नहीं करना चाहता । नित नये प्राविकारों के इस धूमिल वातावरण में भी विश्व-हित-चिन्तन करने वाले, वसुधा-भर को परिवार की संज्ञा देने वाले, अपने को अणु-अणु गलाकर भी पर-हित-चिन्तन करने वाले जीव मात्र में प्रभु की मूर्ति के दर्शन करने वाले, मत्य, अहिसा के समर्थक, मानवता के पूजक भारतीय महात्मानों के पुण्य-प्रताप का डंका अाज भी पृथ्वी पर बज रहा है। प्रणवत-आन्दोलन के प्रवर्तक महामहिम प्राचार्यश्री तुलसी ऐसे ही गण्यमान्य महापुरुषों में से हैं, जिन्होंने साधु-संघ को समयानुकूल राष्ट्रीय चरित्र के पुनरुत्थान में लगाकर मानव जगत् के समक्ष एक नवीन दिशा को जन्म दिया है । आपने चारों दिशात्रों में जनमानस में जो एक नैतिक-जागरण की पताका फहराई है, वह अनुकरणीय है। सहस्रों मीलो की पदयात्रा करके राष्ट्रीय जागति का अापने जनगण मन में दिव्य सन्देश पहुँचाया है।
हमारी सरकार जहाँ पंचवर्षीय योजनाओं द्वारा देशको समृद्धिशाली बनाने के लिए प्रयत्नशील है, वहाँ आचार्यश्री तुलसी का ध्यान देश के नैतिक पुनरुत्थान की ओर जाना और तुरन्त उस ओर कदम बढ़ाना, देश के प्राबाल वृद्ध के हृदयाकाश में नैतिकता की चन्द्रिका का प्रकाश भरना, मानव धर्म की व्याख्या करना प्रादि सत्कार्य ऐसे हैं जिनके कारण प्राचार्यजी के चरणों में हमारा मस्तक श्रद्धा से मुक जाता है। आपने भारतीय संस्कृति और दर्शन के मत्य, अहिंसा आदि सिद्धान्तों के प्राधार पर नैतिक व्रतों की एक सर्वमान्य आवार-संहिता प्रस्तुत करके जनता की अपरिष्कृत मनोवृत्ति का परिष्कार करने के लिए स्तुत्य प्रयत्न किया है।
काल की सहस्रों परतों के नीचे दबे हुए नैतिकता के रत्न को जनता जनार्दन के समक्ष सही रूप में प्रस्तुत करके उसके माहात्म्य को समझाया है। आपके अणुव्रत अनुष्ठान में संलग्न लाखों छात्र और नागरिक अपने जीवन को धन्य बना रहे हैं।
प्राचार्य तुलसी की विद्वत्ता सर्वविदित है। पाप प्रथम प्राचार्य हैं जो अपने अनुगामी साधु-संघ के साथ सर्व जन हिताय अणुव्रत का प्रचार करने के लिए व्यापक क्षेत्र में उतरे है । २६ सितम्बर, १६३६ को आप बाईम वर्ष की अवस्था मे ही प्राचार्य बने । प्रथम द्वादश वर्षों में पाप तेरापंथ साधु सम्प्रदाय में शक्षणिक और साहित्यिक क्षेत्र में प्रयत्नशील रहे । संस्कृत, हिन्दी, राजस्थानी भाषानों की श्रीवृद्धि में आपका व्यापक योग रहा है। अापके परिश्रम के फलस्वरूप ही संघ में हिन्दी का अधिकाधिक प्रचार हुग्रा।
कर्मवीर, स्वनामधन्य प्राचार्यश्री तुलसी का अभिनन्दन निःसन्देह सत्य, अहिसा और अणवत का अभिनन्दन है। आपके प्रभावशाली प्राचार्य काल के पच्चीस वर्ष पूरे हो रहे हैं। इसी उपलक्ष में मैं भी कुछ श्रद्धा-सुमन पागकी सेवा में समर्पित करना चाहता है। पाप जगे पथ-प्रदर्शकों की देश को महती आवश्यकता है। परम पिता परमात्मा पापको दीर्घायु करे, जिससे देश में फैली अनैतिकता का समूलोन्मूलन होकर भारत रामराज्य का आनन्द ले सके।